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प्राचीन भारतीय-आर्य से लेकर नव्य भारतीय- आर्यभाषाओं तक क्रियावाचक धातुसमूह का कितना अंश बचा, कितना बदला, कितना नये स्रोतों से आया उसकी गवेषणा भारतीय-आर्य के इतिहास की तथा भाषा-परिवर्तन की कई समस्याओं पर मूल्यवान प्रकाश डाल सकती है। इस प्रकार का अध्ययन भारतीय भाषाओं के बीच जो साम्य है उसके प्रति ध्यान आकृष्ट करता है, जब कि वैयक्तिक विशिष्टताओं पर अब तक अधिकतर बल दिया गया।
हिन्दी, गुजराती आदि के उपलब्ध कोश कई दृष्टियों से अपूर्ण हैं। विभिन्न बोलियों की सामग्री की. प्राचीन साहित्य की सामग्री की तथा विभिन्न धात्वर्थों की स्पष्टता के बारे में और व्युत्पत्तियों की वैज्ञानिकता के बारे में अभी बहुत करना बाकी है । ऐतिहासिक-तुलनात्मक निष्कर्षों की प्रामाणिकता की मात्रा इन सब पर निर्भर करती है ।
डॉ. चौधरी ने जो व्यवस्थित और चुस्त परिश्रम किया है इससे हमें विश्वास होता है कि वे इस दिशा में अपना मूल्यवान कार्य जारी रखेंगे। सृजन, समीक्षा आदि विविध क्षेत्रों में सतत कार्यशील रहते हुए भी उन्होंने इस शोधकार्य को सम्पन्न किया है इससे भी हमारा यह विश्वास साधार प्रतीत होगा । दिनांक १५-३-८२
हरिवल्लभ भायाणी
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