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पुरोवचन
भारतीय भाषाओं के इतिहास, व्याकरण, कोश, तुलना जैसे विषयों में अर्वाचीन युग में जो सामग्रीमूलक शोधकार्य प्रायः एक शताब्दी से अच्छी तरह चल रहा था उसमें, भाषाविज्ञान की नई सैद्धान्तिक उद्भावनाओं के प्रभाव से १९५०-६० से रुकावट-सी आ गई । भाषाओं का इतिहास, तुलना, कोशरचना आदि अध्ययन-क्षेत्र से हट गये । भाषाओं का प्रवर्तमान स्वरूप, प्रादेशिक वैविध्य, संरचना आदि अध्ययन के केन्द्रवर्ती विषय बने । केवल भाषासिद्धान्त के प्रस्थापन, उत्थापन या परीक्षण के लिए ही भाषासामग्री की उपयुक्तता मानी जाने लगी । फलतः सामग्री-संचयन के कार्य का अवमूल्यन हुआ। इन नये प्रवर्तनों से भारतीय भाषाओं के अध्ययन को लाभ तो हुआ ही, हानि भी कम नहीं हुई। भारतीय भाषाओं के क्षेत्र में सामग्रीमूलक ठोस अध्ययन उतना ही मूल्य रखता है जितना सिद्धांतमूलक अध्ययन।
डॉ. रघुवीर चौधरी के प्रस्तुत तुलनात्मक धातुकोश का मूल्य स्वयंस्पष्ट है । भारतीय आर्यभाषाओं के व्युत्पत्तिविज्ञान एवं काशविज्ञान के विषय में टर्नर आदि के भगीरथ-कार्य की नींव पर हमें इस तरह कार्य आगे बढ़ाना है।
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