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बैराठ स्थित मुगलकालीन जैन मन्दिर
• डा. सत्यप्रकाश
सम्राट अकबर श्री हरिविजय सूरिजी महाराज के दया सम्बन्धी धर्मोपदेशों से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने अपने राज्य भर में १०६ दिन 'अमारी' की आज्ञा प्रसारित कर दी। इससे सब प्रकार के जीवों को अभयदान कम से कम वर्ष के १०६ दिन एक समय मिल गया। यह प्राज्ञा सम्राट अकबर द्वारा सन् १५८२ ई० को जारी की गई थी। इसके अनुसार पशु वध सारे राज्य में १०६ दिन दण्डनीय अपराध था।
राजस्थान राज्य की राजधानी जयपुर की चहल पहल तीर्थङ्करों की मूर्तियां उस मन्दिर में स्थापित की गई
से ५३ मील दूर जयपुर दिल्ली राजमार्ग पर थीं। इन मूर्तियों में पार्श्वनाथ की एक पाषाण प्रतिमा स्थित बैराठ नगर में जो किसी समय किम्वदन्तियों के उन्होंने अपने पिता की स्मृति में तथा दूसरी ताम्र प्रतिमा
आधार पर विराट नगर कहा जाता था और जिसे चन्द्रप्रभाजी अपने नाम पर तथा तीसरी ऋषभदेवजी की महाभारत युगीन कहाजाता है तहसील के निकट एक अपने भाई अजयराज के नाम पर स्थापित कराई जैन मन्दिर है जो राजस्थान के इतिहास में ही नहीं थीं। इन प्रतिमाओं को उन्होंने मुख्य देवता विमलनाथजी वरन् जैन साहित्य के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण के नाम पर मन्दिर में स्थापित कराई थी। इस मन्दिर स्थान रखता है।
में विमलनाथजी की प्रतिमा मुख्य प्रतिमा थी। इस स्थापत्य कला की दृष्टि से इस मन्दिर में गर्भगृह मन्दिर को इन्द्र विहार की संज्ञा दी गई थी। इस मन्दिर के पूर्व एक सभा मण्डप है । गर्भगृह के तीनों प्रोर एक का एक दूसरा नाम भी था और वह था महोदय प्रदक्षिणा पथ है । यह पथ चौड़ा है । ऊंची दीवालों से प्रासाद । इस मन्दिर को बैराठ में उन्होंने बहत धन घिरा एक लम्बा चौकोर चौक इस मन्दिर के अन्दर है। व्यय करके निर्मित कराया था। पूर्व दिशा में सामने की मोर एक सुन्दर अलङ्करणों से इस मन्दिर की मूर्तियों की प्रतिष्ठा एक बहुत बड़े प्रयुक्त स्तम्भोदार द्वार मण्डप है । अन्दर की ओर चौक सन्त द्वारा की गई थी। ये सन्त तत्कालीन महान की दक्षिणी दीवार में एक बड़ा पत्थर पर अङ्कित लेख है विभूतियों में से थे । उनका नाम था हर विजय सरिजीजिसे सर्व प्रथम डा० भण्डारकर प्रकाश में लाये थे। महाराज श्री कल्याण विजय गरिणजी महाराज श्रीहरि यह शिलालेख अद्यावधि पूरी तरह से प्रकाश में नहीं विजय सूरिजी के पट्ट शिष्य थे। उन्होंने अपने गुरु को लाया गया है। शिलालेख में ४० पंक्तियां हैं। यद्यपि इस पुण्य कार्य में बड़ा ही सहयोग प्रदान किया था। शिलालेख का बहुत सा भाग खण्डित है और अस्पष्ट है तत्कालीन साहित्य के अध्ययन के आधार पर यह ज्ञात इसके अध्ययन के आधार पर यह ज्ञात होता है कि होता हैं कि श्रीहीर विजय सुरि का तो कहना ही क्या राकमाण गोत्रोत्पन्न श्रीमाल वंशज इन्द्रराज द्वारा तीन उनके शिष्य श्री कल्याण विजय गरिणजी महाराज
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