SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अथवा बाह्याचार और पाषण्ड का उपहास किया है है, तिल में तेल होता है और काठ में अग्नि होती है, क्त के मिलन या समरसता की दशा का उसी प्रकार परमात्मा का वास शरीर में ही है। यह उल्लेख किया है, वह व्यापकता महयंदिरण मुनि में नहीं परमात्मा रूप, गंध, रस, स्पर्श, शब्द, लिंग और गुण पाई जाती। इसके अतिरिक्त 'बारहखड़ी' का कवि जैन आदि से रहित है । उसका न कोई प्राकार है, न गुण। २ धर्म को मान्यतामों से अधिक दबा हुआ प्रतीत होता है। गौरवर्ण या कृष्णा वर्ण दुर्बलता अथवा सबलता तो अनेक दोहों में तो उसने सामान्य ढंग से केवल जिनेश्वर शरीर के धर्म हैं। आत्मा सभी विकारों से रहित और की वंदना या अहिंसा का उपदेश मात्र दिया है। लेकिन अशरीरी है। ३ ऐसे ब्रह्म की प्राप्ति किसी बाह्याचार से पूरे ग्रय के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि नहीं हो सकती। सिर मुडाने या केश बढ़ाने में कोई कवि पर मुनि रामसिंह की रहस्यवादी भावना का प्रभाव अन्तर नहीं है। जप, तप, व्रत प्रादि से उसकी प्राप्ति है। उसने भी अन्य रहस्यवादी कवियों के समान ब्रह्म की कामना अविवेक है । ४ रेचक, पूरक, कुम्भक, इड़ा, की स्थिति घट में स्वीकार की है, गुरु को विशेष महत्व पिंगला तथा नाद विन्दु आदि के चक्कर में न पड़कर, दिया है, माया से मुक्ति का उपाय बताया है, बाह्याचार अपने अन्तर में स्थित 'संत निरंजन' को ही खोजना की अपेक्षा चित्र शुद्धि और इन्द्रिय-नियन्त्रण पर बल चाहिए। ५ इस प्रकार आपने सहज भाव से या है और पाप-पुण्य दोनों को बंधन का हेतु बताया पद प्राप्ति में विश्वास व्यक्त किया है और इसी को है। उसका कहना है कि जिस प्रकार दूध में धी होता सर्वोत्तम साधना स्वीकारा है। १. रवीरहं मंझहं जेम घिउ, तिलह मंझि जिम तिलु । - कट्ठिउ वासरगु जिम वसइ, तिम देहहि देहिल्लु ।। २३ ।। २. रूप गंध रस फंसडा, सद्द लिङ्ग गुण हीण। अछइसी देहडिय सउ, घिउ जिम खीरह लोरणु ॥ २७ ॥ ३. गोरउ कालउ दुब्बलउ, बलियउ एउ सरीरु । अप्पा पुरणु कलिमल रहिउ, गुणवंतउ असरीरु ॥ २८ ॥ ४. जब तब वेयहि धारणहिं, कारणु लहण न जाइ । ५. रेचय पूरय कुभयहि, इउ पिंगलहि म जोइ । नाद विद कलिवज्जियउ, संतु निरंजरगु जोइ ॥२७८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy