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'उतीस गल्ल तिरिण सय विरचिन दोहाबेल्लि' ॥५॥ है। ककहरा और अखरावट भी इसी प्रकार का एक इस प्रकार ३३४ दोहों में दो श्लोक मिला देने से कुल काव्य-रूप होता है। बावनी काव्य की रचना हिन्दी छन्द संख्या ३३६ हो जाती है ।
वर्णमाला के आधार पर होती है । हिन्दी में स्वर और कवि ने रचनाकाल १७२० दिया है। यह विक्रम व्यञ्जन मिलाकर ५२ अक्षर होते हैं । 'इन बावन अक्षरों सं० नहीं हो सकता, क्योंकि वि० सं० १५६१ और को नाद स्वरूप ब्रह्म की स्थिति का अंश मानकर इन्हे १६०२ को तो हस्तलिखित प्रतियां ही उपलब्ध हैं। पवित्र अक्षर के रूप में प्रत्येक छन्द के प्रारम्भ में प्रयुक्त अतएव यह वीर निर्वाण सम्वत् प्रतीत होता है। कवि किया जाता है । हिन्दी में इस प्रकार के लिखे गए बावनी ने वीर निर्वाण सं०१७२० अर्थात् विक्रम सम्बत् १२५० काव्यों की संख्या बहुत अधिक है। केवल अभय जैन में यह काव्य लिखा। काव्य की भाषा भी १३ वीं शती ग्रंथालय बीकानेर में ही लगभग २५-३० बावनी काव्यों की प्रतीत होती है। १८ वीं शताब्दी में इस प्रकार के की हस्तलिखित प्रतियां सुरक्षित हैं। अपभ्रश के प्रचलन का कोई प्रमाण नहीं मिलता। उस बारहखड़ी काव्य में प्रत्येक व्यञ्जन के सभी स्वर समय तो जैन कवि भी हिन्दी में वाक्य रचना कर रूपों के आधार पर एक-एक छन्द की रचना होती हैं। रहे थे ।
इस प्रकार एक ही व्यञ्जन के दस या ग्यारह रूप (जैसे कवि-परिचय
क, का, कि, की, कु, कू, के, के, को, को, कं आदि) ग्रंथ के अनेक दोहों में कर्ता के रूप में 'महयंदिण बन जाते हैं महयं दिरण मुनि ने इसी पद्धति का प्रयोग मनि' का नाम पाया है। लेकिन इनका कोई विशेष किया है। महयंदिरण मुनि के अतिरिक्त अन्य कवियों ने परिचय नहीं प्राप्त होता । उन्होंने इतना ही लिखा है भी इस काव्य-रूप को अपनाया। सं० १७६० में कवि कि सांसारिक दुःख के निवारण के लिए बीरचन्द के दत्त ने हिन्दी में एक 'बारहखड़ी' की रचना की थी। शिष्य ने दोहा छन्द में यह वाक्य लिखा।
लेकिन इसमें ७६ पद ही हैं। प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'भव दुक्खह निन्विरणएण, वीरचन्दसिस्सेण ।
अपने इतिहास में किशोरी शरण लिखित 'बारहखड़ी' भवियह पडिबोहण कया दोहाकव्व मिसेण ॥४॥
का उल्लेख किया है (पृष्ठ-३४५)। इसका रचनाकाल
सं० १७६७ है । सं० १८५३ में चेतन नामक कवि ने इसके अतिरिक्त केवल इतना ही ज्ञात होता है कि
४३६ पदों 'अध्यात्म बारहखड़ी' की रचना की थी। वे विक्रम की १३ वीं शती में विद्यमान थे ।
और उसी समय की सूरत कवि द्वारा लिखित एक काव्य रूप, नामकरण तथा ग्रंथ का विषय
'जैन बारहखड़ी' भी मिलती है। काव्य का नाम 'दोहापाहड' है और वह 'बारहखडी' महयंदिण मुनि ने अंत में ग्रंथ के महत्व और पद्धति पर लिखा गया है। कवि ने 'बारह खड़ी या उसके पढ़ने का फल बताने के बाद कहा है कि 'दोहापाहड' 'बारह प्रक्खर' का उल्लेख दो दोहों में किया है । प्रारम्भ समाप्त । में जिनेश्वर की वंदना के बाद वह कहता है :- 'जो पढ़इ पढ़ावइ संभलइ, देविगुदविलिहावइ ।
_ 'बारह विउणा जिगणवमि, किय बारह अक्खरक्क महयंदु भणइ सो नित्तुलउ, अवखइ सोक्ख परावइ ॥३३॥ इसी प्रकार ३३३ ३ दोहे में लिखा है।
॥ इति दोहापाहुडं समाप्त ॥ 'किम बारक्खम कक्क, सलक्खण दोहाहिं।
इससे स्पष्ट है कि ग्रंथ का नाम 'दोहापाहडं' है मध्यकाल में अनेक काव्य-रूप जैसे शतक, बावनी, और 'बारहखड़ी' उसका काव्य-रूप है। तीसी, छत्तीसी, पचीसी, चौबीसी, अष्टोत्तरी प्रादि मुनि रामसिंह के दोहापाहड़ के समान यह भी एक चिलित थे। उनमें एक 'बारहखड़ी' भी था। बारहखड़ी रहस्यवादी काव्य है । यद्यपि जिस ढंग से मूनि रामसिंह को 'बावनी' का विकसित काव्य-रूप माना जा सकता ने प्रात्मा-परमात्मा के मधुर सम्बन्ध का वर्णन किया है
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