________________
महयंदिर
• डा० वासुदेव सिंह
एम. ए., पी-एच. डी. हिन्दी विभाग काशी विद्यापीठ-विश्व विद्यालय वाराणसी
मुनि
महापंदिण नामक मुनि का एक ग्रंथ-'दोहा पाहुड श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये । भट्टारक श्री पद्मनन्दी देवातत्य?
(बारहखड़ी)' प्राप्त हुआ है । इसको एक हस्तलि- भट्टारक श्री सुभचन्द्र देवा तत्प? भट्टारक श्री जिनचन्द्र खित प्रति श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल को जयपुर के 'बड़े देवा तत्पट्ट भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देवा तत् शिष्य मंदिर के शास्त्र भाण्डार' से प्राप्त हुई थी, जिसकी मण्डलाचार्य श्री धर्मचन्द्र देवा । तदाम्नाये रेलवात्मान्वये सूचना उन्होंने 'अनेकान्त' (वर्ष १२, किरण ५) में दी ऽस्मस्तगोठिक सास्त्र कल्याण व्रतं निमित्ते अर्जिका थी । इसकी एक अन्य हस्तलिखित प्रति मुझे 'आमेर विनय श्री संजोग्यू दत्तं । ज्ञानवान्यादेन निर्मयो । शास्त्र भण्डार जयपुर' में देखने को मिली थी। कासली- अभइट्टानतः अंबदानात सुषीनित्यं निम्बाधी भेषजाद वाल जी की प्रति में ३३५ दोहे हैं । लिपिकाल पौष सुदी भवेत् ।।६।।' १२ बृहस्पतिवार सं० १५६१ है । उसकी प्रतिलिपि श्री छन्द संख्या और रचनाकाल चाहड सौगाणी ने कमें क्षय निमित्त की थी। मुझ प्राप्त कवि ने एक दोहे में ग्रंयका रचनाकाल ग्रोर छन्दों प्रति में दोहों की संख्या ३३५ ही है। इसका प्रारम्भ की संख्या इस प्रकार दिया है। एक श्लोक द्वारा जिनेश्वर की वंदना से हुआ है । श्लोक
'तेतीसह छह छंडिया विरचिन सत्रावीस । इस प्रकार है:
बारह गुणिया तिणिसय हमा,दोहा वउबीस ॥६॥ 'जयत्य शेषतत्वार्थ प्रकाशिप्रथितश्रियः ।
. अर्थात् १७२० में विरचित्र ३३६ ( तेतीस के साथ मोहध्वांतौधनिदि ज्ञान ज्योति जिनेशिन ॥१॥
छः छन्दों को यदि १२४३०) तिणिसय-विंशतः ३६० अन्त में लिखा है कि इस प्रति को सं० १६०२ में में छोड़ दिया जाय या निकाल दिया जाय तो २४ दोहे वैशाख सदि तिथि दसमी रविवार को उत्तर फाल्गुन शेष रह जाएंगे अथात् ३६० में जिस संख्या को निकाल नक्षत्र में राजाधिराज शाह आलम के राज्य में चंपावती देने से २४ संख्या शेष रह जाती है, कवि ने उतने ही नगरी के श्री पार्श्वनाथ चैत्यालय के भट्टारक श्री कुन्द- छन्दों में यह काव्य लिखा । यह संख्या ३३६ होती है । कन्दाचार्य के यह भट्टारक श्री पद्मनन्दी देव के पट्ट 'दोहा पाहड' की प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में छन्द भट्टारक श्री शुभचन्द्र देव के पट्ट भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र
संख्या ३३५ ही है, जिनमें दो श्लोक और शेष दोहा के शिष्य मण्डलाचार्य श्री धर्मचन्द्र देव ने लिपिबद्ध
छन्द हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लिपिकारों से एक किया।
दोहा छूट गया है। मामेर शास्त्र भाण्डार वाली प्रति में संवत १६०२ वर्षे वैसाख सुदि १० तिथौ रविवासरे तो एक श्लोक भी अधूरा है। 'नमोऽस्त्वनन्ताय जिनेश्वनक्षत्र उत्तर फाल्गुने नक्षत्रे राजाधिराज साहि पालमराजे। राय' के बाद छन्द ( संख्या ३ ) प्रारम्भ हो गया हैं। नगर-चम्पावती मध्ये ॥ श्री पार्श्वनाथ चैत्यालय ।। श्री ग्रंथ में एक स्थान पर दोहों की संख्या ३३४ दी भी गई मुलसिंधे नव्याम्नायेवताकार गणे सरस्वती गदे भद्रारक हैं। वह अंश इस प्रकार है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org