SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्मचर्यवास में गिनाए भी गए | गोशालक कहते थे, तीन प्रवस्थाएं होती है-बद्ध, मुक्त, और नबद्ध नमुक्त । वे स्वयं को मुक्त कर्मलेप से परे मानते थे । उनका कहना था - मुक्त पुरुष स्त्री सहवास करे तो भी उसे भय नहीं । ये सारे प्रसंग भले ही उनके आलोचक सम्प्रदायों के हों, पर आजीवकों को प्रब्रह्म विषयक मान्यता को एक गवेषणीय विषय प्रवश्य बना देते हैं । एक दूसरे के पोषक होकर ये प्रसंग अपने प्राप में निराधार नहीं रह जाते । इतिहासविद् डा० सत्यकेतु डी० लिट् ने गोशालक के भगवान महावीर से होने वाले तीन मतभेदों में एक स्त्री सहवास बताया है 3 कुल मिलाकर कहा जा सकता है, जैन आगमों का 1 ६७ प्राजीवकों को प्रब्रह्म के पोषक बतलाना श्राक्षेप मात्र ही नहीं है । कोई सम्प्रदाय विशेष ब्रह्मचर्य को सिद्धान्त रूप से मान्यता न दे, यह भी कोई अनहोनी बात नहीं है । भारतवर्ष में अनेकों सम्प्रदाय रहे हैं, जिनके सिद्धान्त त्याग और भोग के सभी सम्भव विकल्पों को मानते चले हैं । हम अब्रह्म की मान्यता पर ही प्राश्चर्यान्वित क्यों होते हैं, उन्हीं धर्म नायकों में प्रजित केशकम्बल जैसे भी थे जो आत्म अस्तित्व भी स्वीकार नहीं करते थे। यह भी एक प्रश्न ही है कि ऐसे लोग तपस्यायें क्यों करते थे । अस्तु नवीन स्थापनाओं के प्रचलन में और प्रचलित स्थापनाओं के निकाररण में बहुत ही जागरूकता और गंभीरता अपेक्षित है । निम्न महाशय ने जैतपुर विराजमान लीबडी सम्प्रदाय के महाराज श्रीलवजी स्वामी से भेंट की । आपने महाराज श्री के साथ जैन रिलीजन सम्बन्धी चर्चा पौन घण्टे तक की आखिर में आपने जैन मुनियों के पारमार्थिक जीवन और त्याग धर्म की योग्य प्रशंसा की और पीछे से पत्र द्वारा अपना सन्तोष जाहिर किया । इसमें बहुत तारीफ करने के साथ समयाभाव से अधूरा विषय छोड़ना पड़ा, इसका अफसोस जाहिर किया । Jain Education International - मि० एच. डब्लयू वर्धन सं० एजेंट जैन वर्तमान १४ जून १९३३ ई० से १. चुल्ल वग्ग, स्यन्दक सुत्त ६-२ २. महावीर कथा, पृ० ११७; तीर्थंकर वर्धमान पृ० ८३ । ३. भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृ०१६३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy