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________________ ६६ यथाशक्य प्रयत्न डा. वैरणी माधव बसपा ने अपने विदेशी विद्वानों व उनके ग्रन्थों के प्रमाण दिये जाते हैं। अन्य' में किया है। जैन प्रागमों के एतद् विषयक वर्णनों को केवल प्राक्षेधर्मानन्द कौशाम्बी प्रभृति लोगों ने भी इसी प्रकार पात्मक समझ बैठना भूल है। जैन आगम जहां का आशय व्यक्त किया है । यह सुविदित है कि गोशालक गोशालक व प्राजीवक मत की निम्नता व्यक्त करते हैं, सम्बन्धी जो भी तथ्य उपलब्ध हैं, वे जैन और बौद्ध वहां वे गोशालक को अच्युतकल्प तक पहुंचा कर और परम्परा से ही सम्बद्ध हैं। उन आधारों पर ही हम उनके अनुयायी भिक्षुषों को वहां तक पहुंचने की क्षमता गोशालक का समग्र जीवन-वृत्त निर्धारित करते हैं। जैन प्रदान कर उन्हें गौरव भी तो देते हैं । गोशालक के और बौद्ध परम्परानों से हट कर यदि हम खोजने बैठे विषय में वह गोशाला में जन्मा था, वह मंख था, वह तो सम्भवतः हमें गोशालक नामक कोई व्यक्ति ही न पाजीवकों का नायक था प्रादि बातों को तो हम जैन प्रागमों के आधार से माने और जैनागम की इस बात मिले । ऐसी स्थिति में एतद् विषयक जैन और बौद्ध को कि वह महावीर शिष्य था,निराधार ही हम यों कहें आधारों को, भले ही वे किसी भाव और भाषा में लिखे कि वह महावीर का गुरु था, बहुत ही हास्यास्पद होगा। गये हों, हमें मान्यता देनी ही होती है। कुछ प्राधारों को हम सही मानलें और बिना किसी हेतु के ही कुछ यह तो प्रश्न ही तब पैदा होता, जब जैन प्रागम उसे शिष्य बतलाते और बौद्ध व पाजीवक शास्त्र उसके गुरु एक को हम असत्य मानलें, यह ऐतिहासिक पद्धति नहीं हो सकती । वे प्राधार निर्हेतुक इसलिए भी नहीं माने होने का उल्लेख करते । प्रत्युत स्थिति तो यह है कि जा सकते कि जैन और बौद्ध दो विभिन्न परम्परागों के महावीर के सम्मुख गोशालक स्वयं स्वीकार करते हैं कि उल्लेख इस विषय में एक दूसरे का समर्थन करते हैं। गोशालक तुम्हारा शिष्य था, पर मैं वह नहीं हूं। मैंने डा० जेकोबी ने भी तो परामर्श दिया है-"अन्य तो उस मृत गोशालक के शरीर में प्रवेश पाया है। यह प्रमाणों के प्रभाव में हमें इन कथाओं के प्रति सजगता शरीर उस गोशालक का है, पर प्रात्मा भिन्न है। इस प्रकार विरोधी प्रमाण के अभाव में ये 'कल्पनात्मक रखनी चाहिए । प्रयोग' नितान्त अर्थ शून्य ही ठहरते । यह प्रसन्नता हैं तथारूप निराधार स्थापनाएं बहुत बार इसलिए भी की बात है कि इस निराधार धारणा के उठते ही अनेकों प्रागे से आगे बढ़ती जाती हैं कि वर्तमान गवेषक मूल गवेषक विद्वान इसका निराकरण भी करने लगे हैं। की अपेक्षा टहनियों का प्राधार अधिक लेते हैं। प्राकृत आजीवक भिधों के प्रब्रह्म-सेवन का उल्लेख व पाली की अनन्यास दशा में वे आगमों और त्रिपिटकों प्रार्दकुमार प्रकरण में पाया है, इसे भी कुछ एक लोग का सर्वागीण अवलोकन नहीं कर पाते और अंग्रेजी निता प्राप मानते हैं ५। केवल नितान्त आक्षेप मानते हैं ५ । केवल जैन आगम ही व हिन्दी प्रबन्धों के एकांगी पूरावे उनके सर्वाधिक ऐसा कहते तो यह सोचने का प्राधार बनता, पर बौद्ध आधार बन जाते हैं। यह देख कर तो बहुत ही आश्चर्य शास्त्र भी आजीवकों के प्रब्रह्म-सेवन की मुक्त पुष्टि होता है कि सामान्य शास्त्र-सुलभ तथ्यों के लिए भी करते हैं ६ । निग्गण्ठ ब्रह्मचर्यवास में और प्राजीवक १. प्री बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलोसोफी, पृ० २८७-३१८ २. महावीर स्वामी नौ संयम धर्म, पृ० ३४ 3. S. B. F. Vol. XLV, Introduction, P. XXXIII ४. देखें-डा० कामताप्रसाद द्वारा लिखित लेख, वीर, वर्ष ३ अंक १२-१३; चीमनलाल जयचन्द शाह एम० ए० द्वारा लिखित प्रबन्ध-उत्तर भारत मां जैन धर्म, पृ० ५८ से ६१ ५. महावीर तो संयम धर्म, पृ० ३४ 6. Ajivkas Vol. I; मज्झिम निकाय, भाग १, पृ० ५१४ Encylopaedia of Religion and Ethics, Hoernle, P. 261 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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