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________________ महावीर और गोशालक • मुनिश्री नगराजजी अणुव्रत परामर्शक इतिहास और शोध के क्षेत्र में तटस्थता पाए, यह पृष्ठभूमि में यह भी माना है-"महावीर पहले तो - नितान्त अपेक्षित है। साम्प्रदायिक व्यामोह इस पार्श्वनाथ के पंथ में थे, किन्तु एक वर्ष बाद जब वे क्षेत्र से दूर रहे, यह भी अनिवार्य अपेक्षा है । पर अचेलक हुए, तब पाजीवक पंथ में चले गए २।" इसके तटस्थता और नवीन स्थापना भी भयावह हो जाती है; साथ-साय डा० बरुया ने इस प्राधार को ही अपने पक्ष जब वे एक व्यामोह का रूप ले लेती हैं। गोशालक के में गिनाया है कि गोशालक भगवान महावीर से दो वर्ष सम्बन्ध में विगत वर्षों में गवेषणात्मक प्रवृत्ति बढ़ी है। पूर्व जिनपद प्राप्त कर चुके थे 3 । यद्यपि डा० बरुया ने प्राजीवक मत और गोशालक पर पश्चिम और पूर्व के यह स्वीकार किया है कि-"ये सब कल्पना के ही विद्वानों ने बहुत कुछ नया भी ढूढ निकाला है। पर महान प्रयोग ४ हैं।" तो भी उनकी उन कल्पनाओं ने ग्वेद का विषय यह है कि नवीन स्थापना के व्यामोह में किसी-किसी को अवश्य प्रभावित किया है और तदनुसार कुछ एक विद्वान गोशालक सम्बन्धी इतिहास मूल से ही उल्लेख भी किया जाने लगा है और श्री गोपालदास अोंधे पैर खड़ा कर देना चाह रहे हैं । डा. वेणी माधव जीवाभाई द्वारा अनुदित सूत्रकृतांग (गुजराती) के उपोबरुपा कहते हैं-"यह तो कहा ही जा सकता है, कि द्घात (पृ. ३४) में वह उल्लेख द्विगुणितरूप से मिलता जैन और बौद्ध परम्परामों से मिलनेवाली जानकारी से है। वे लिखते हैं-महावीर और गोशालक ६ वर्ष यह प्रमाणित नहीं हो सकता कि जिस प्रकार जैन तक एक साथ रहे थे । अतः जैन सूत्रों में गोशालक के गोशालक को महावीर के दो ढोंगी शिष्यों में से एक विषय में विशेष परिचय मिलना ही चाहिए। भगवती, ढोंगी शिष्य बताते हैं, वैसा वह था। प्रत्युत उन सूत्रकृतांग, उपासकदशांग प्रादि सूत्रों में गोशालक के सूचनामों से विपरीत ही प्रमाणित होता है, अर्थात् मैं विषय में विस्तृत या संक्षिप्त कुछ उल्लेख मिलते भी कहना चाहता हूं कि इस विवादग्रस्त प्रश्न पर इतिहास- हैं। किन्तु उन सब में गोशालक को चारित्र-भ्रष्ट तथा कार प्रयत्नशील होते हैं तो उन्हें कहना ही होगा कि- महावीर का एक शिष्य ठहराने का इतना अधिक प्रयत्न उन दोनों में एक दूसरे का कोई ऋणी है तो वास्तव में किया गया लगता है, कि सामान्यतया ही उन उल्लेखों गुरु ही ऋणी है, न कि जैनों द्वारा माना गया उनका को आधारभूत मानने का मन नहीं ढोंगी शिष्य।" डा० बरुमा ने अपनी धारणा की गोशालक के सिद्धान्त को यथार्थ रूप से रखने का 1. The Ajivkas J. D. L. Vol. [I 1920 pp. 17-18 २. वही, पृ० १८ ३. वही, पृ० १८ ४. वही, पृ० २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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