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________________ ६३ गृह त्याग कर श्री भद्रबाहु स्वामी द्वारा दीक्षित होना तथा प्र ने शील के प्रभाव से रानी कोशा को भी जैन धर्म में दीक्षित करने को कथा वर्णित है । काव्य का शीर्षक उपयुक्त एवं वर्णन योजना भव्य है । श्लोक ६० में राजधानी का बड़ा विस्तृत वर्णन है । विरह वन में अनुभूति की तीव्र व्याकुलता है। भाषा पर कवि का पूर्ण अधिकार है। अलंकारों में कवि को उत्प्रेक्षा अधिक प्रिय रहा है। गंगा की उठती हुई तरंगों को लेकर कवि ने सुन्दर उत्प्रेक्षाएँ की है । 3 काव्य में स्थल २ पर कवि को मौलिक प्रतिभा व कल्पना शक्ति का परिचय मिलता है । वादिचंद्र सूरि द्वारा निर्मित 'पवन दूत' (१७वीं शताब्दी) में उज्जयिनी के राजा विजय नरेश तथा उनकी रानी तारा का विरह वरित है। कथा का कोई निश्चित आधार नहीं है, वह कल्पनिक है । तारा की चरित्रगत विशेषताओं का अच्छा विश्लेषरण हुआ है । मार्ग वर्णन का प्रभाव है । भाषा बडी सरस तथा प्रसाद गुरण युक्त है | साहित्यिक, धार्मिक तथा सामाजिक दृष्टि से यह पर्याप्त सफल संदेश काव्य है । साहित्य में पशु-पक्षी, पवन, मेघ, चंद्रमा आदि द्वारा समय-समय पर कवियों ने संदेश भिजवाये हैं; शील व चित्त जैसे भावों को दूत बनाकर किसी परन्तु ने नहीं भेजा। यद्यपि 'चेतोदूत' का कवि अज्ञात है तथापि भावों एवं विषयों की नवीनता की दृष्टि से इस काव्य को मौलिकता को अस्वीकार नहीं कियाजा सकता । प्रस्तुत काव्य में एक शिष्य का गुरु के चरणों में चित्त रूपी दूत के माध्यम से संदेश प्रेषित किया गया है। प्रतः काव्य के उपयुक्त एवं सुन्दर शीर्षक के संबंध में आशंका को कोई गुंजाइश नहीं है । काव्य में यत्र-तत्र जैन धर्म के सिद्धान्तों का उल्लेख है तथा श्रृंगार की प्रपेक्षा सर्वत्र भक्ति व शांति का साम्राज्य है। १८वीं शताब्दी में श्री विनयविजय गरिण द्वारा निर्मित 'इन्दुदूत' संदेश काव्य में चातुमास के अंत में स्वयं कवि ने अपने गुरु श्री विजय प्रभु सूरीश्वर को ३. पारिव सुन्दर गरिणः शीलदूत, श्लोक ४४ Jain Education International चंद्रमा द्वारा सांवत्सरिक क्ष्मापरण संदेश प्रेषित किया है । जोधपुर मे सूरत तक बीच में आने वाले पर्वतों जैन मंदिरों, दुर्गों, नदियों तथा नगरों विशेषतया सूरत नगर के वैभव का बड़ा सुन्दर वर्णन है। जैन मंदिरों का वर्णन करते हुए कवि कहता है चित्रे-श्विक इह न जनो वीक्ष्य चित्रीयते काव्य में संदेश तो थोड़ा है पर उसके माध्यम से धर्म सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है। भाषा प्रसाद गुणयुक्त, शैली सरस, रस शांत तथा वर्णन प्रभावक है । संस्कृत जैन कवियों का अंतिम संदेश काव्य 'मेघदूत समस्या लेख' (१८वीं शताब्दी) में कवि मेघ विजय ने देवपतन में स्थित अपने गुरु श्री विजय प्रभु सूरि के पास मेघ द्वारा कुशल वार्ता का संदेश प्रेषित किया है । काव्य में वर्णन योजना शानदार है। प्रौरङ्गाबाद को समृद्धि का वर्णन कवि ने कितने सुन्दर ढंग से किया है। यथा अस्यां मुक्तामरकत पवि श्री प्रसुनेन्दु रत्नपूगान दृष्ट्वातरणिशशिनोः श्रांत कार्तस्वरूपान् ।। पण्य श्रेणी विपरिगणितान् विद्र मच्छेदराशीत् संलक्ष्यन्ते सलिल निद्ययस्तोय मात्रावशेषाः ||३४|| इसके अतिरिक्त शांतिनाथ मंदिर, एलोर पर्वत, देवगिरी की शोभा, नर्मदा नदी एवं जैनतीर्थों का वर्णन भी अच्छा बन पड़ा है। भाव, भाषा, विषय एवं उद्देश्य की दृष्टि से यह एक सफल काव्य है । कवि का नाम मेघ विजय काव्य का नाम मेघदूत समस्या लेख, समस्या भी मेघदूत की तथा दूत भी मेघ ही है। संदेश काव्यों में इसका बड़ा विशिष्ट स्थान है । जैन कवियों के उपर्युक्त संदेश काव्यों पर यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो निम्न लिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है १. समस्त जैन संदेश काव्यों में सात्म चिन्तन की प्रधानता रही है। २. श्रृंगार के साथ-साथ शांत रस की सृष्टि हुई है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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