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________________ कथा होने से काव्य की स्वाभाविकता को बड़ी ठेस प्रयत्न है । राजमती का विरह वर्णन वास्तव में बड़ा पहँची है। स्थल-स्थल पर दुरूहता के कारण नीरसता मार्मिक है। उसके विरहपर्ण उदगारों में एक पोर का समावेश हो गया है । प्रस्तुत काव्य की वर्णन योजना। जीवन के प्रति नैराश्यपूर्ण भावना है तो दूसरी पोर बड़ी भव्य है । प्राकृतिक दृश्यों एवं अनेक भावपूर्ण उसके सर्वोत्कृष्ट स्वरूप को भी प्रदर्शित किया गया है। स्थलों पर कवि की प्रतिभा निखर उठी है। कई स्थानों उसका चरित्र वास्तव में एक आदर्श है । कवि द्वारा पर संश्लिष्ट वर्णन भी मिलता है। ऋतुनों के अनुसार अंकित यह चित्रण बड़ा मनोवैज्ञानिक एवं अनुभूति विभिन्न दृश्यों का बड़ा ही मनोहारी चित्र कवि ने पूर्ण है। इसमें जीवन की मार्मिक वेदना स्पष्ट हुई है । अंकित किया है। भाषा की दृष्टि से बड़ी प्रौढ कृति वैवाहिक जीवन की इस विडम्बना युक्त बेला में उसके है। जैन साहित्य में धार्मिक, साहित्यिक एवं दार्शनिक जीवन की समस्त प्राशा-आकांक्षानों पर पानी फिर गया दृष्टि से इसका स्थान बड़ा महत्वपूर्ण है। है। बिना किसी दोष के असमय में ही त्यागी गई राजमती के जीवन की ये घडियां किस प्रकार व्यतीत चौदहवी एवं पंद्रहवी शताब्दी में जैन धर्म के हुई होंगी, जबकि प्रिय वियोग में केवल प्राण व सौन्दर्य २२वें तीर्थकर श्री नेमिनाथ के जीवन की कथा से संबंद्ध ही शेष रहे होंगे १ तथा एक-एक घड़ी की प्रतीति बीते दो अन्य कृतियां क्रमशः विक्रम कवि की 'नेमिदूत' तया हुए अनेक युगो की भांति हुई होगी। २ इस प्रकार के मेरुतुग की 'जैन मेघदूत' उपलब्ध होती है । इन काव्यों वर्णनों में कितनी सुन्दर व्यंजना है ? जहाँ कहीं ऐसे में भगवान नैमिनाथ के जीवन की महत्वपूर्ण घटना प्रसंग पाये हैं, वहां हृदय द्रवी भूत हुए बिना नही संसार त्याग व राजमती का संदेश वर्णित है तथा अंत रहता । काव्य का प्रारंभ विरह वर्णन से हुआ है तथा में राजमती को प्रात्मानंद की प्राप्ति होती है । इस अंत भी । संपूर्ण काव्य में शृगार रस का साम्राज्य हैं; संक्षिप्त कथानक का इन काव्यों में बड़ा ही सजीव एवं परन्तु अंतिम श्लोकों में शांत रस की सृष्टि हुई है। मार्मिक वर्णन है। राजमती मेघ को दूत बनाकर अपने दोनों कृतियों में प्रलंकार योजना बड़ी सुन्दर है। यथा-' प्रिय के पास संदेश भेजती है । अतः काव्य का शीर्षक मुक्ताहारा सजलनयना त्वद्वियोगार्तदीना। बिल्कुल उपयुक्त है । कया में कहीं विशृखलता दृष्टि गोचर नहीं होती। भाषा-शैली, विचार तारतम्य एवं कार्ययेन त्यजति विधिना सत्वयैवोपपाद्यः ॥ रस की दृष्टि से दोनों कृतियाँ अत्यंत समृद्ध है। दोनों अथवा कृतियों में एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि 'नेमिद्रत' में उद्यन्मोह प्रसवएजसा चाम्बरं पूरयन्तोऽगिरनार से द्वारिका के बीच प्राने वाले विविध प्राकृतिक भीकाभीष्टा मलयमरुतः कामवाहाः प्रसनु ॥ दृश्यों का सुंदर चित्रांकन है, वह 'जैन मेघदूत' में नहीं प्रथम उदाहरण 'नेमिदूत' तथा द्वितीय "जैन मिलता । 'नेमिदूत' में यत्र-तत्र समुद्रों, नदियों, नगरों, मेघदूत' का हैं, जिन में क्रमश. काव्यलिंग एवं उत्प्रेक्षा यामों एवं वक्षों आदि का बड़ा स्वाभाविक वर्णन हुमा की छटा दर्शनीय है। अलंकारों की भरमार के कारण है। इस प्रकार के भौगोलिक ज्ञान का 'जैन मेघदूत' में कल्पना कहीं-कहीं अवश्य क्लिष्ट हो गई है। काव्य में प्रभाव रहा है। दोनों ही कृतियों का सर्वाधिक मामिक प्रारंभ से अंत तक स्वाभाविक प्रवाह है। कहीं भी प्रसंग राजमती का विरह वर्णन है । 'मेघदूत' में जहां कृत्रिमता दृष्टि गोचर नहीं होती। नायक अपनी प्रेयसी के वियोग में व्ययित है, वहाँ पंद्रहवीं शताब्दी की एक अन्य रचना चारित्र सुन्दर प्रस्तत काव्यों में विरक्त नायक को अनुरक्त करने का गणि की 'शीलदूत' है, जिसमें राजकुमार स्यूल भद्र का १. विक्रम कविः नेमिदूत, श्लोक ११६ २. विक्रम कविः नेमिदूत, श्लोक ६७, १०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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