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________________ संदेश काव्य परंपरा में जैन कवियों का योगदान संदेश काव्यों को परम्परा में एक दृष्टिकोण से जैन आचार्यों को निःसंदेह सर्वथा प्रयोगवादी कवि कहा जा सकता है, शृंगार रस की परम्परा में धार्मिक तत्वों का समावेश कर इन महान कवियों ने अपनी प्रतिभा से एक नवीन दिशा का निर्देशन किया है । इनके द्वारा लिखे गए संदेश काव्यों में जिनसेन का 'पाश्वभ्युदय' अत्यन्त महत्वपूर्ण है । सम्पूर्ण काव्य चार सर्गो में विभक्त है तथा 'मेघदूत' के छन्दों के चरणों की समस्यापूर्ति बड़े कौशल से की गई है । कमठ तथा मरुभूति को कर्मानुसार अनेक योनियों में जन्म लेने की कथा वरिणत की गई है । अन्त में मरुभूति (श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर का पूर्व भव का जीव ) की सहिष्णुता कमठ के सारे पाप धुल जाते हैं । संदेश काव्यों की अखंड परंपरा का प्रारंभ संस्कृत साहित्य के महाकवि कालिदास द्वारा निर्मित प्रसिद्ध कृति मेघदूत से ही माना जा सकता । यद्यपि इसके पूर्व ऋग्वेद में सरमा के, वाल्मिकी रामायण में हनुमान के महाभारत में कृष्ण के, श्री मद्भागवत में उद्धव के दूत कर्म का उल्लेख हुआ है, परन्तु महाकवि कालिदास ने अपनी तीव्र एवं गंभीर भावानुभूतियों द्वारा मानव मन को गंभीर विरहानुभूति का मार्मिक चित्रण जिस ग्रात्मीय तल्लीनता के साथ अंकित किया है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता, कालिदास का 'मेघदूत' आने वाली कई शताब्दियों तक कवियों का प्रेरणा स्रोत रहा | 'मेघदूत' के माधुर्यं एवं लालित्य ने केवल जैनेतर कवियों को हो दूत काव्यों के रूप में मधुर भाव की विरहासक्ति व्यक्त करने को प्रेरित नहीं किया, प्रत्युत कुछ जैन कवियों ने भी धार्मिक रचनाओं में उसकी शैली का अनुकरण किया 19 १. डॉ० ब्रजेश्वर बर्माः हिन्दी साहित्य कोष, भाग १, पृ० सं० ७६१ Jain Education International • प्रो. शांतिकुमार पारख एम. ए., साहित्यालंकार संदेश काव्यों की परंपरा में एक दृष्टिकोण से जैन आचार्यों को निस्संदेह सर्वथा प्रयोग वादी कवि कहा जा सकता है । शृंगार रस की परपरा में धार्मिक तत्वों का समावेश कर इन महाकवियों ने अपनी प्रतिभा से एक नवीन दिशा का निर्देशन किया है । इनके द्वारा लिखे गये संदेश काव्यों में जिनसेन का 'पाव भ्युदय' प्रत्यंत महत्वपूर्ण है । संपूर्ण काव्य चार सर्गों में विभक्त है तथा 'मेघदूत' के छंदों के चरणों की समस्यापूर्ति बड़े कौशल से की गई है । कमठ तथा मरुभूति को कर्मानुसार अनेक योनियों में जन्म लेने की कथा वरित की गई है । अंत में मरुभूति (श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर का पूर्वभव का जीव ) की सहिष्णुता से कमठ के सारे पाप घुल जाते हैं । इस प्रकार श्री पार्श्वनाथ को पूर्व महिमा के द्वारा काव्य में भक्ति तत्व का समावेश किया गया है। समस्या पूर्ति की दृष्टि से काव्य को सफलता संदिग्ध है, परन्तु विभिन्न जन्मों को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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