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________________ गन्ध से युक्त मूर्त द्रव्य को पुद्गल कहते हैं जो प्रारूप प्राना प्रास्रव कहलाता है । चौथा तत्त्व बन्ध है। कर्म भी होता है और स्कन्ध अर्थात् अणुनों का समूह भी का पात्मा से संलग्न होना बन्ध कहलाता है। पांचवा हो सकता है । शेष चारों द्रव्य प्रमूर्त और सर्वव्यापी हैं तत्त्व संवर है । कर्म से विरत होना संवर कहलाता है। दिक कालाणु प्रदेश प्रचयालक नहीं है । लोका काश के छठा तत्त्व निर्जरा है। पहले से बंधे हु प्रत्येक प्रदेश पर एक एक काला स्थित है। धर्म जीव को तपयोग आदि से नष्ट करना निर्जरा कहलाता है। और पुद्गल को गतिमान बनाता है । अधर्म जीव और सातवां तत्त्व मोक्ष है । कर्म के सर्वथा नाश होने पर पुद्गल को स्थिर अथवा गतिहीन करता है। प्राकाश जब जीव जन्म मृत्यु से रहित होकर अपने शुद्ध स्वरूप गतिहीन करता है। प्राकाश सब पदार्थों को अवकाश को प्राप्त कर लेता है उस दशा को मोक्ष कहते हैं। देता है । काल सब पदार्थों को परिवर्तित करता रहता ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे स्पष्ट है कि है ये चारों ही द्रव्य अपने अपने कार्य को उदासीन जैन धर्म समय की दृष्टि से अत्यन्त प्राचीन और सिद्धान्तों होकर करते है प्रेरक बनकर नहीं। तीसरा तत्त्व की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट है । इसका प्रादुर्भाव ऐतिहासिक प्रास्रव है। रागद्वेष आदि के कारण मन, वचन दृष्टि से कम से कम ग्यारहवीं शताब्दी ई.पू. में हो चुका और शरीर से जो क्रियाएं होती हैं उनके कारण था। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह धर्म वैदिक धर्म कर्म परमाणुओं का प्रात्मा के पास खिच कर के बाद भारत का सबसे प्राचीन धर्म है । वास्कोडिगामा द्वारा किये गये उल्लेखों से यह बात पूर्ण रूप से विदित हो जाती है कि, मालावार प्रान्त के समुद्री किनारे पर उस समय जो बस्ती थी वह न कभी हिंसा करती थी, इतना ही नहीं किन्तु समुद्र के किनारे पर रहने पर भी मांस मच्छी आदि के आहार को निषिद्ध ही मानती थी। इस वस्तु स्थिति से अनुमान होता है कि वह प्रजा जैनधर्मी ही होनी चाहिए, जिसका प्रभाव तमाम प्रजा पर पूर्ण रूप से पड़ा था। इसके उपरांत जैनधर्म के सम्बन्ध में इष्ट इण्डिया कम्पनी के समय के अनेक उल्लेख मि० कोल ब्रक की डायरी में पाये जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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