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________________ ५६ नैतिक दृष्टि से उसका अध: पतन होगया था । सामाजिक की प्राप्ति हुई और उन्होंने अपनी अनुभूति से प्राप्त तत्व क्षेत्र में भी यही स्थिति थी। यज्ञों में पशु बलि जैसे ज्ञान का प्रचार प्रारंभ किया। उस समय से वे अहंत्, कर कर्म की प्रचुरता समझदार मनुष्यों को आवश्य ही जिन और निग्रन्थ कहलाने लगे। बौद्ध ग्रन्यों में तो खलती होगी। अतः इन दोषों को दूर करने के लिए उन्हें निग्गंठ नातपुत्र अर्थात् निग्रन्थ ज्ञातृपुत्र नाम से ही एक ही कुल में दो महापुरुष उत्पन्न हुए जिन्होंने अपने पुकारा गया है । ढंग से लोगों को सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न किया । महावीर ने पार्श्वनाथ के बताये हए अहिंसा, सत्य, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्त अस्तेय और अपरिग्रह नामक चार व्रतों में पांचवां अहिंसा का ऐतिहासिक उपदेश सबसे पहले नेमिनाथ ने ब्रह्मचर्य और जोड़ दिया और इन पांच व्रतों के पालन ही दिया । नेमिनाथ सौराष्ट्र के निवासी थे और गिरनार पर जोर दिया । उन्होंने तीस वर्ष तक अपने मत का के नाम से विख्यात हैं । अतः हम गुजरात को जैन धर्म प्रचार किया और श्रावस्ती, मिथिला, वैशाली, राजगृह, को प्रादिभमि मान सकते हैं जहां से यह पूर्व दिशा में चम्पा आदि अनेक नगरों का भ्रमण करके बहुत से लोगों फैला। का अपना अनुयायी बनाया । बहत्तर वर्ष की आयु में नेमिनाथ के बाद जैनों के तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्व राजगृह के निकट पावापुरी में उनका निर्वाण हुमा । नाय हए। पार्श्वनाथ के समय तक जैनधर्म काशी तक। उनके निर्वाण की तिथि प्रायः ५२७ ई.पू. मानी फैल चुका था। पार्श्वनाथ काशी के राजा अश्वसेन और जाती है। उनकी पत्नी वामा के पुत्र थे। उनका जन्म लगभग ८७७ ई.पू. में हुप्रा । तीस वर्ष तक उन्होंने ऐश्वर्य इन महान तीर्थंकरों ने जिस धर्म की स्थापना की पूर्ण गृहस्थ जीवन बिताया। तदनन्तर उन्होने सारे उसके सिद्धान्त भी संक्षेप में बता देने आवश्यक हैं। ऐश्वर्य का त्याग करके तपस्या और समाधि का जीवन जैनधर्म के अनुसार संसार का कोई कर्ता-हर्ता नहीं है। ग्रहण किया। ८४ दिनों की समाधि के बाद उन्हें सम्यक् संसार अनादि अनन्त है। प्रत्येक प्रारमा भी अनादि और ज्ञाना प्राप्त हुना और उसके बाद उन्होंने सत्तर वर्ष अनन्त है। कर्म ही जन्म का कारण है प्रतः कर्म से तक सन्मार्ग का उपदेश दिया। १०० वर्ष की अवस्था छुटकारा पाने से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। कर्म से में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। पार्श्वनाथ ने अहिंसा. छुटकारा पाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं जिन्हें सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार नियमों के पालन रत्न त्रय कहते हैं । ये रत्न त्रय सम्यक दर्शन, सम्यक पर बल दिया। ज्ञान और सम्यक् चारित्र हैं। तीर्थङ्करों और उनके पार्श्वनाथ के अनन्तर जैनों के अन्तिम और सर्व बताये हुए मार्ग में पूरी श्रद्धा को सम्यक् दर्शन कहते हैं। तीर्थकरों के उपदेशों द्वारा प्राप्त प्रात्मज्ञान को महान तीर्थ कर महावीर स्वामी हुए । इनके समय तक सम्यक् ज्ञान कहते हैं । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह जैनधर्म वैशाली और उससे भी आगे तक बढ़ गया था। और ब्रह्मचर्य नामक पांच ब्रतों के पालन को सम्यक महावीर का जन्म का नाम वर्धमान था और वे वैशाली चारित्र कहते हैं । जैन धर्म सर्वाधिक बल प्रात्म शुद्धि के निकट कुण्डग्राम के ज्ञातृक नामक क्षत्रिय कुल के पर देते हैं। मुखिया सिद्धार्थ और उनकी पत्नी त्रिशला के पुत्र थे। उनका जन्म ५६४ ई.पू. में हप्रा । वर्धमान भी अपने जैन धर्म में सात तत्त्व बताये गये हैं जिनके जाने पूर्वगामी तीर्थङ्कर की भांति तीस वर्ष की आयु में बिना मनुष्य सम्यक् ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता । घरबार छोड़ कर सत्य की खोज में निकले । बारह वर्ष पहना तत्त्व जीव है । प्रत्येक प्रात्मधारी जीव कहलाता तक समाधि और तप में लीन रहने के बाद बयालीस है । दूसरा तत्त्व अजीव हैं जिसके पांच भेद हैं-पुद्गल, वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य अर्थात् सर्वोच्च ज्ञान धर्म, अधर्म, आकाश और काल । स्पर्श, वर्ण, रस और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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