SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माना गया है । यह शब्द वैदिक तर्य (तुरीय- मिथ्यात्व की वासना से जीत्र सम्यक्त्व में रमण संन्यासी)४४ का विकसित रूप ज्ञात होता है । अतः नहीं करता (ण रमिाह सम्मत्ते) ५१ । संवत्स के महावीर संन्यासी थे। जैनों का एक वर्ग उनके गृहस्थ सम्यक्त्व में रमरण करने का कालपर्व ही संवत्सर है। जीवन को भी स्वीकार करता है; परन्तु अधिकतर लोग जिसका प्रारम्भ सांवत्सरिक उत्सव से होता है। पुनर्वत्स उन्हें बाल सन्यासी मानते हैं । इस मान्यता के अनुसार जीवन प्रक्रिया में भोग व योग का सुन्दर समन्वय देखने महावीर पुनर्वसन होकर संवत्स (सम्यक रूपेण वत्स:- को मिलता है। इसके विपरीत संवत्स-प्रक्रिया कठोर जन्मना वत्सः) थे। संयम पर बल देती है। जैन मुनियों के जीवन में कठोर संवत्स शब्द ऋग्वेद में केवल एक मन्त्र में उपमेय प्रात्मसंयम का आदर्श रूप देखने को मिलता है। के रूप में प्रयुक्त हुअा है;४५ परन्तु पुनर्वत्स की तुलना ऋग्वेद के एक सूक्त के ५२ ऋषि वैराज ऋषभ में इसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। संवत्स के जीवन में हैं। विराज गौ और उसके दोहन का वर्णन अथर्ववेद सम्यक्त्व की प्रधानता होती है । जैन शास्त्रों में सम्य- में मिलता है। ऋषभ उसी विराज के पुत्र हैं । ऋषि क्व को ज्ञान श्रियो मूलम्, अपास्त दोषम्, चारित्र प्राणतत्व से अभिन्न हैं ५४ । इस प्रकार ऋषभ ऋषि बल्लीवन जीवनम् प्रादि विभूषणों से विभूषित किया। प्राणतत्व का ही नाम है जिसका कालान्तर में परमगया है ४६ । प्रानन्दमय, शुद्ध, चिद्रप प्रात्मा में दृढ़ । भागवत नाभेय ऋषभ के ऐतिहासिक चारित्र पर प्रारोप निश्चय की स्थिति ही सम्यक्त्व है४७ । सम्यक्त्व की हा । नाभेय ऋषभ को निगदेनाभिष्ट्रयमान५५, प्रात्मप्राप्ति को त्रलोक्य की प्राप्ति से भी श्रेष्ठ माना गया तन्त्र५६प्रादि विशेषणों से विभूषित किया गया है। जैन है ४८ । यही मनुष्यत्व का सार (सारो वि रणरस्स)४६ शास्त्रों में प्रादि जिन ऋषभ का विशिष्ट लांछन वृषभ है । सम्यक् जीवन के ८ अंग - निःशंकित, निःकांक्षित, माना गया हैं ५७ । चारसींग, तीन पाद, दो शीर्ष, सात निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, हाथ वाला त्रिधा बद्ध गोमुख यक्ष भी ऋषभ के साय वात्सल्य और प्रभावना हैं ५० । इन पाठों में वात्सल्य संयुक्त है ५६ इसका स्वरूप ऋग्वेदिक महावृषभ रूप ६ को ही प्रमुखता प्राप्त है। यज्ञ पुरुष से अभिन्न है। ४४. ऋग्वेद ५।४४१२. ४५. संवत्स इव मातृभिः-यथा संवत्स अपनी माता से मिलता है ।-ऋग्वेद हा२०५।२.. ४६. भारतीय ज्ञान पीठ पूजा पदावली-पृ०२३२. ४७. उपयुक्त । ४८. भगवती आराधना ७४२. ४६. दर्शन पाहुड़ (कुन्दकुन्द)-३१. ५०. चारित्रपाहुड़ (कुन्दकुन्द) ७. ५१. भगवती आराधना ७२८. ५२. ऋग्वेद-ऋग्वेद १०।१६६. ५३. अथर्ववेद ८।१०१२-५. ५४. ऐतरेय ब्रा० २।२७. ५५. श्रीमद्भागवतपुराण ५।३।१६. ५६. उपयुक्त ५।४।१४. ५७. Jain Iconography, BC. Bhattacharya : पृ० ४६ पर प्रवचनसारोध्दार से उध्दुत । ५८. उपयुक्तः पृ०६६ पर प्रतिष्ठासार संग्रह का उद्धरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy