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इस ऋषभ का वात्सल्य प्राप्त करने के लिए संवत्स जीवन अपनाया जाता है। ऋग्वेद के एक मंत्र के अनुसार विश्वरूपा कामदुघा गो का पय संवत्सर में व्याप्त है जिसे दिखावा मात्र करने वाले ( यातुधान - जादूगर ) नहीं पा सकते ३० । इस पय रूप पुष्टि की प्राप्ति के लिये ही पुनर्वत्स व संवत्स साधनाओं के व्रत लिए जाते हैं । पुनर्वत्मों को ऋषि पंचमी हो संवत्सों को संवत्सश्री या संवत्सरी है । संवत्स अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह — इन यमों को महाव्रत के रूप में अपनाते हैं । साधारण श्रावक भी अणुव्रतों द्वारा महाव्रतों के लिए अपने जीवन को अभ्यस्त बनाते हैं ।
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कठोर शारीरिक साधना के कारण ये ऊर्ध्वमन्थो श्रमण कहे गये हैं # ६१
अपने अपने समाज और सभ्यता के अनुसार किसी वस्तु को देखने को किसी जाति या राष्ट्र की अपनी माँ होती हैं ६२ । भारत में भी श्रद्धा व तप को केन्द्र मान कर जीवन-यापन के लिए स्वतन्त्र दृष्टि कोण का विकास हुआ है। तप से भारतीय स्वयं को बत्स के रूप में ढालता है व श्रद्धा से विश्व चेतना से पोषण प्राप्त करता है । संवत्सरी तपोमय जीवन के प्रभ्यास द्वारा मन को वत्सवत् संयत् करके विश्वात्मक प्राण का वात्सल्य प्राप्त करने के लिए मनाया जाने वाला उत्हव है |
(१) अतियारे अस्तीत्व धरावतां धर्मो मां जैन धर्म एक एवो धर्म छै के जेमां अहिंसा नो क्रम सम्पूर्ण छै अने जो शक्य तेटली दृढ़ता थी सदा तेने लगी रह्यो छ ।
(२) ब्राह्मण धर्म मां पण घरणां लांबा समय पच्छी सन्यासियों माटे आ सूक्ष्मतर अहिंसा वादित धई अने आखरे वनस्पति आहार का रूप मां ब्राह्मण ज्ञाति मां पण ते दाखील थई हती कारण एछे के जैनो ना धर्म तत्वो एज लोक मत जीत्यो हतो तेनी असर सज्जड रीने बघती जाती हती ।
- डा० एफ० प्रोटो सचरादर पी० एच० डी०
५६. चत्वारि 'गा त्रयो अस्य पादा द्वो शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।
त्रिधा बढो वृषभो रोरवीति महो देवो भर्त्या श्रा विवेश ॥ ऋग्वेद ४५८१३.
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६०. ऋग्वेद १०८७/१७.
६१. तैत्तिरीय प्रारण्यक २७.
६२. डा० जनार्दन मिश्र - भारतीय प्रतीक विद्या०पृ०१३३.
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