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________________ ५५ पाश्रम व्यवस्था का उद्देश्य न केवल प्रत्येक व्यक्ति के मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता है । इसीलिए बुद्ध ने कहा लिए श्रम को अनिवार्य कर देना है, अपितु-इसका लक्ष्य "शमयिता हि पापानां श्रमण इति कथ्यते। 3 । जैन उचित उद्देश्य की पूर्ति के लिए उचित ढंग से श्रम का परंपरा में भी आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए प्राध्यात्मिक उपयोग करवाना भी है ३५ । प्रथम दो आश्रमों में श्रम श्रम करने वाले श्रमण कहे जाते है ४० । शम पर्यवसित का प्रवृत्तिपरक रूप देखने को मिलता है तो अन्तिम दो श्रम ही जैन गण या शासन का मूलाधार है । इस में निवृत्तिपरक । इस श्रम को उत्तरोत्तर 'शम' रूप देने आध्यात्मिक-गणराज्य के प्रवर्तक-महावीर बुद्ध के समय का प्रयत्न किया गया है २५ । में ही संघी, गरणी, गणाचार्य आदि नामों से विख्यात वैदिक-यज्ञों में प्रतीकात्मकता बढ़ जाने पर उनका हो चुके थे। परवर्ती जैन गणधरों की एक लम्बी स्थान सहजसाध्य प्रक्रियाओं ने ले लिया। ऐसी प्रक्रि- अविच्छिन्न परंपरा है। इस गण के विभाग है-मुनि, यानों को उत्सव नाम दिया गया। उत्सवों के प्रचार में आर्यिका, श्रावक-व श्राविका । बौद्ध संघ में साधारण सारे भारत में फैले हुए गणराज्यों ने प्रमुख रूप से योग गृहस्थ को कोई स्थान दिया गया; परन्तु जैन शासन में दिया। गरगों का विकास महाभारत युद्ध में प्राचीन राज- श्रावक व श्राविका भी विशिष्ट स्थान रखते हैं । अतः वंशों की समाप्ति के उपरान्त हा था । इस युद्ध के जैन शासन की समाज में सफल रूप से प्रतिष्ठा हई। बाद भारत में सांस्कृतिक-दृष्टि से हास का युग पाया जैन मत अवैदिक नहीं है। श्रम के प्राध्यात्मिक और गणों में अर्थकामपरायणता बढ़ गई । मानव व रूप को ग्रहण करके विकसित होने के कारण जैनमत मानवाश्रम की उपेक्षा होने लगी । बुद्ध व महावीर ने में यज्ञ का यह ऋषि प्रशस्त रूप ग्राह्य माना गया है। गणों की यह अवस्था देख कर भारतीय-संस्कृति के मूल तपो ज्योतिः जीवो ज्योतिस्थान श्रमवाद की प्रतिष्ठा श्रमणधर्म के नाम से की। योगस्न वा शरीरं करीषम् । श्रमण संस्था भारत में बुद्ध से पूर्व विद्यमान थी; ३७ कर्मेधः संयमयोगशान्तिः परन्तु इसका नवीकरण नितान्त स्वतंत्र रूप से हुआ। होम जुहोमि ऋषिणां प्रशस्तम् ।।४१ बुद्ध व महावीर ने श्रम का पर्यवसान शम' में दिखाया तथा प्राध्यात्मिक-गणराज्य का प्रादर्श समसामयिक प्रारण्यक व उपनिषदों में यज्ञ का ऐसा रूप गणों के सामने रक्खा ७८ । .... . व्याख्यात है । अतः महावीर ने अपने मत को सत्पुरुष श्रम के कारण मानव मानव में सहज सम्बन्ध तो पार्यों का अनुपम मार्ग कहा है ४३ ।। स्थापित होता ही है. मानव मन की पशुता का अन्त भी वर्तमान महावीर को एक स्थान पर तायी नाम उससे होता है । इस प्रकार श्रम शम में पर्यवसित होकर से अभिहित किया गया है ४३ । जिसका अर्थ प्रति ३५. डा० फतहसिंह-वैदिक समाज शास्त्र में यज्ञ की कल्पना पृ० २३ ३६. उपयुक्त पृ० २४ ३७. डा० राधाकुमुद मुकर्जी-हिन्दू सभ्यता पृ१ २४६ ३८. द्रष्टव्य-लेखक का 'प्राचीन भारत में गणतांत्रिक शासन व्यवस्था' निबन्ध । साहित्य संस्थान उदयपुर की शोधपात्रिका वर्ष १५ अंक १ । ३६. धम्मपद २०१० ४०. द्रष्टव्य-पं० चैनसुखदास लिखित प्रहत् प्रवचन की भूमिका पृ०३ ४१. उत्तराध्ययन सूत्र १२४३ की संस्कृत छाय।। ४२. सूत्रकृतांग सूत्र ७५६ ४३. उपयुक्त सूत्र सं० ५६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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