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वाक,प्राण व यज्ञ से संवत्सर को अभिन्न माना गया सहज वत्सलता के कारण प्रकृतिरूपी गो को है १६ । अतः संवत्सरी का बाप धेनु व प्रारण रूप सहवत्सा, २८ वत्सिनी, २.६ नित्यवत्सा 3° कहा गया ऋषभ से तो सम्बन्ध है ही; मन रूप वत्स के लिए वह है। वत्स और पुनर्वत्स ऋग्वेद के ऋषि हैं । ऋषि नाम दीक्षा का पर्व भी है । गौ ही विश्व का भरण करती है मंत्रार्थ व्यक्त करने वाला संकेत हैं । पुनर्वत्स शब्द (गौर्वा इदं सर्व बिभति° । प्राण रूप ऋषभ गौ को का तात्पर्य है-जो पुनः वत्स बन जाय-A weanedधारण करने वाला ( गन्धर्व )२१ कहा गया है । प्रारण calf, that begis to suck again. इन्द्र है,२२ गौ से अभिन्न है २३ इसी लिए एक सूक्त में
ब्रह्मचर्य-गृहस्थ-वानप्रस्थ इस क्रम से सन्यास ऋषभ की इन्द्र रूप में स्तुति की गई है २४ । . के रूप में ब्रह्मचर्य को पुनः अपना लेना ही पुनर्वत्स
गौ वत्स से इतना प्रेम करती है कि मानवी प्रेम भी की कल्पना का मूल है। पुनर्वत्स ऋषि द्रष्ट मंत्र में उसके सामने तुच्छ है २५ । ऋग्वेद के इस मंत्र में रंभाती इस व्यवस्था का पृश्नि से तीन सरोवरों के दोहन ३२ के हुई, वत्स के प्रति गमन करती हुई, दुधारू गाय का रूप में उल्लेख मिलता है। इस व्यवस्था को प्राश्रम वर्णन है
ब्यवस्था कहा गया है । पाश्रम शब्द का अर्थ है जिसमे हिङकृण्वन्ती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात् श्रम व्याप्त हो ( प्रासमन्तात् श्रमः यस्मिन् )। दहाश्विभ्यां पयो अध्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय २६॥ श्रम को वैदिक-साहित्य में ऋत, सत्य, तप जैसी
गो के वत्स प्रेम को आदर्श मानकर अथर्ववेद में प्राध्यात्मिक-विभूतियों तथा राज्य, धर्म एवं कर्म जैसी मानव मात्र में वैसे प्रेम को प्रतिष्ठित करने की बात पार्थिव शक्तियों के साथ गिनाया गया है 331 श्रम कही गई है २७।
के बिना देवता मनुष्य की सहायता नहीं करते ३४ । १६. वाक् संवत्सरः । ताण्ड्य म० ब्रा० १०।१२।७, प्राणो वै संवत्सरः । ता० म. ब्रा० ५।१०।२ संवत्सरो
यज्ञः प्रजापतिः-शतपथ १२.५।१२ को० ब्रा०६।१५ ऐतरेय ब्रा० ४।२५ . २०. शतपथ ३।१२।१४ २१. जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण ३१३६३ २.. प्राण इंद्रः । शतपथ १४।४।३।१६, १२।४।१।१४ २३. इमा या गावः सजनास इन्द्रः । ऋग्वेद ६।२८।५ २४. ऋग्वेद १०११६६ २५. ऋग्वेद १६१६४।२६ २६. ऋग्वेद १११६४।२७ (कुछ विद्वान् इस मंत्र के प्रथमाक्षरो के संयोग से 'हिन्दू' को निष्पत्ति मानते हैं
जिसका अर्थ हुमा गो (प्रकृति) का दोहन करने वाला । विचार उत्तम किन्तु विचारणीय है) २७. अथर्ववेद ३।३०।१ २८, ऋग्वेद १३२॥ २६. ऋग्वेद ७.१०३।२ ३०. अथर्ववेद ७१०६१ ३१. द्रष्टव्य लेखक का 'ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषि' निबन्ध । वेदवाणी वर्ष १५ अंक १ तथा डा० सुधीर
___ कुमार गुप्त-'ऋग्वेद के ऋषि और उनका सन्देश और दर्शन' पुस्तिका । ३२. ऋग्वेद ८७।१० ३३. अथर्ववेद ११।६।१७ ३४. न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः । ऋग्वेद ४१३३।११
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