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परपरामों में विकसित हए जान पड़ते हैं। संवत्सरी संवत्सरी । दोनों ही यह उत्सव वात्सल्य प्राप्ति के हेतु जिनधर्मानुयायियों का महत्त्वपूर्ण उत्सव है जिसका मनाते हैं । वत्स बनने के लिए व्रत का वरण करने से संबन्ध संवत्स व संवत्सर से ज्ञात होता है।
चार वर्णों का विकास हुमा है । तो जैन परंपरा में कावेद के एक मत से ज्ञात होता है कि व्रतवारी सम्यक्त्व का वरण करना संवर कहा गया है। विषयों वर्ष भर के लिए वर्ष काल में व्रत धारण किया करते से विरक्त होकर प्रात्मा को मनोहारी विषयों से संवत थे । प्रतियों के २७ सम्प्रदायों का उल्लेख 'चूलनिह स' करना संवर है; ११ सम्यक् दर्शन, अणुव्रत, महाव्रत, नामक बौद्ध ग्रन्थ में मिलता है। इनमें एक सम्प्रदाय
कषायों को जीतना भी संबर कहा गया है १२ । बरणीय समिती /गोवतिका वो देवता । निशा सम्यक है-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र । निसाय इसमें पथक उल्लिखित है। ऐसा इन्हें रत्नत्रय कहा जाता है। तपाचार व वीर्याचार द्वारा ज्ञात होता है कि निगण्ठ व गोब्रतिकों में कभी धनिष्ठ जीवन में रत्नत्रय की प्रतिष्ठा संभव है। सम्यक्त्व श्रद्धा सम्बन्ध रहा होगा । अतः ऋषभ, गोवतिको के पाराध्य,
का पर्याय है। श्रद्धा व तप से जीवन में सत्य की जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर माने गए होंगे । अथवा यह
संसिद्धि होती है। वैदिक यज्ञों का उद्देश्य भी जीवन भी संभव है कि गोवतिक, ऋषभवतिकों से स्वतंत्र हों।
में श्रद्धा व सत्य को समन्वित करना ही है १३ । वत्स गोव्रत का पुराणों में उल्लेख मिलता है। ऋग्वेदों। भाव से व्रत ग्रहण करना वात्सल्य प्राप्ति के लिए में चैतन्याधिष्ठित प्रकृति अदिति ६ या विराज गौ १०
प्रावश्यक है । जैनशासन में सम्यक्त्व के पाठ अंगो में के रूप में वर्णित हैं। उसका पोषण प्राप्त करने के लिए वात्सल्य ( वच्छल ) भी गिनाया गया है १४ जिसके अपने प्राप को वत्स या वत्सतर बना लेना ही गोव्रत का
विषय में कहा गया है कि धर्मात्मानों का प्रियवचन व प्राधार है। मनुष्य में विश्वप्रकृति का एक अंश मन आचरण से अनुसरण करने वाले सम्यक दृष्टि जीवन बुद्धि, प्राण, इन्द्रियादि के रूप में उपस्थित है। मन व
का वात्सल्य अंग होता है। १५ प्रादिजिन ऋषभ पु-गव इन्द्रियों को इस प्रकार संयत किया जाय कि वे प्रकृति हैं, सम्यक् आचरण से वत्स बन जाने पर उनके वात्सल्य रूपी कामधेनु से यथेष्ट पोषण प्राप्त करले । यह पोषण की प्राप्ति संभव है। वात्सल्य कहा जाता है।
बृहदारण्यकोपनिषद् में वाक् को धेनु, प्राण को ___ भाद्रपद शुल्क पंचमी को वैदिक-परंपरानुयायी ऋषभ और मन को वत्स कहा गया है १६ । अन्यत्र भी ऋषि पंचमी उत्सव मनाते है और जिनधर्मानुयायी वाक् को धेनु १७ व मन को वत्स १८ कहा गया है ।
८. ऋग्वेद ७।१०३११ ६. ऋग्वेद ८१०१११५ १०. अथर्व वेद २०१११३।२ ??. कार्तिकेयानुप्रेक्षा-१०१ १२. उपर्युक्त-६५ १३. ऐतरेय ब्राह्मण ७।१० १४. चारित्रपाहुड़ (कुन्दकुन्द)-७ १५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा-३५ १६. वृ० उ० ५।८।१ १७. बाग्वै धेनु:-ता० महा-ब्राह्मण १८।२१ गोपथ ब्रा०पू० २।२१ शथपथ ।।१।२।१७ प्रादि । १८. शतपथ ११०३।११ जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण १।१।१६
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