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________________ सहयोगी या विरोधी पुत्रों को समानुरूप से स्नेह प्रदान कर निःस्वार्थ भाव से पालन-पोषण करती है । इसके प्रभाव में सभी शक्तियां और विचार निराकुलतापूर्वक तथा स्वतंत्रतापूर्वक प्रश्रय पाते हैं । सभी शक्तियां अपने अपने प्रकाश का विस्तार तो करती हैं पर उनमें कहीं कोई संकोच नहीं है, कहीं कोई मनोमालिन्य नहीं है, कहीं कोई प्रतिद्व ंदिता नहीं है एवं अपने-अपने व्यक्तित्व को सुरक्षित रखते हुए भी सभी में एक दूसरे के साथ सम्मिलन, समीकरण और एकीकरण की भावना पाई जाती है । यह एक प्रेम का सौदा हैं जो श्रादि से अंत तक और जीवन के हर स्वरूपों में उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होता जाता है । यह प्रेम व्यापार स्फटिक की भांति विशुद्ध है, मेंमने की तरह सौम्य है, सिंह की तरह वीर्यवान है और तनिक भी त्रुटि के प्रति विजयी योद्धा की तरह प्रचण्ड है । यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि साधना की तरतमता के अनुपात में प्राध्यात्मिकता को भी अनेक भागों में बांटा जा सकता है । प्राध्यात्मिक उत्कर्ष की श्रेणी में सबसे ऊपर वे व्यक्ति हैं जिनकी करूरणा का विस्तार अनंत है, जिनका व्यक्तित्व समग्र विश्व के साथ मिलकर तदाकार हो गया है, जिनकी भूतदया की तीव्रता सर्वोत्कृष्ट है, जिनका विश्वप्रेम सर्वोत्तम विवेक तथा सर्वश्रेष्ठ निर्माण शक्ति पर आधारित है, जिनके व्यवहारों का प्रेरणास्त्र केवल विश्वकल्याण है एवं प्रतीत, वर्तमान तथा भविष्य जिनकी कल्याण भावना से ओतप्रोत हैं । अर्हत् तीर्थंकर अवतार, पैगम्बर, शास्ता इसी कोटि के महापुरुष हैं । इसके विपरीत, सबसे निचली सतह पर वे प्राणी हैं जिनमें काम, क्रोध, मान, मोह माया, लोभ जैसे दुर्गुण भरे हुए हैं। ये अध्यात्मविरोधी या स्वार्थसाधक प्राणी हैं जिनमें परोपकार-वृत्ति का प्रभाव है । इन दो छोरों के बीच में श्राध्यात्मिक लोगों को अनेक श्रेणियां हैं । अध्यात्म विरोधी स्थिति के ऊपर श्रमाध्यात्मिकता को अवस्था है | यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें प्राध्यात्मिकता का विरोध तो नहीं है किंतु जिसमें प्राध्यात्मिकता की विशेषताएं भी नहीं पाई जातीं । उदाहर ४८ Jain Education International णार्थ, मानव समाज में ऐसे भी व्यक्ति पाये जाते हैं जो ऊपर से समग्र मानवता के प्रति प्रेम तो प्रदर्शित करते हैं किंतु जिनमें प्राणी दयामूलक मानवीय भावनायें नहीं पाई जाती। उनका मानवता प्रेम इतना शिथिल, कमजोर और उथला होता है तथा इतनी कम मात्रा में प्रयुक्त होता है कि इसे आध्यात्मिकता को अपेक्षा अनाध्यात्मिक उदासीनता कहना ही उपयुक्त होगा । वे न तो मानवता-प्रेम के लिये अत्यधिक उत्सुक होते हैं और न अत्यधिक उदासीन । वे एक तरह से स्वार्थ और न्यूनतम प्राध्यात्मिकता को मिलाने वाली सीमांत रेखा पर बैठे हैं । इस प्रकार के व्यक्ति साधारणतया समाज सम्मत कानून का पालन करने वाले होते हैं । इनमें वे व्यक्ति भी शामिल हैं जो सार्वजनिक कार्यकर्ता या सरकारी कर्मचारी होने के कारण सहायता कार्य तो करते हैं किंतु इसके लिये वे पारश्रमिक या वेतन लेते हैं । ऐसे व्यक्ति ईमानदार, सदाचारी, न्यायपरायण और जिम्मेदार नागरिक तो हो सकते हैं, किंतु उन्हें प्राध्यास्मिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यदि कुर्की करना, मांसाहार गिरवी रखना, दास रखना या किसी व्यक्ति को और किसी तरह क्षति या पोड़ा पहुंचाना जैसे कार्य कानून सम्मत हों तो उनके करने में उन्हें कोई बुराई नहीं दीखती । आध्यात्मिक उदासीनता से कुछ ऊंची सीमान्त आध्यात्मिकता की स्थिति है । इस स्थिति में व्यक्ति अपने वैध अधिकारों का इस प्रकार प्रयोग करता है और अपने वैध कर्तव्यों का इस प्रकार पालन करता है जिससे किसी को कोई हानि नहीं पहुंचे तथा दूसरों के अधिकारों एवं कर्तव्यों का कोई उल्लंघन न हो ! समाज व्यवस्था को दृष्टि से बनाये गये कायदे-कानूनों से यह कुछ अधिक ऊंची स्थिति है । यह सीमान्त स्थिति इसलिये है कि इसे वैध उपायों के जरिये सामाजिक सीमाओं के भीतर अनिवार्य रूप से बांध दिया गया है । इस सीमा उल्लंघन करने पर कानून में नाना प्रकार के दण्डों का विधान किया गया है । अतएव वैधानिक व्यवहार न तो स्वार्थमूलक होते हैं और न परोपकार मूलक । वैधानिक व्यवहार में जीवदया, प्राणीप्रेम और सदाशयता जैसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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