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न होकर सामूहिक बन जाती है। इस प्रकार के समाज का प्रत्येक सदस्य एक अलग-अलग इकाई न होकर निर्माणकारी समाज का अभिन्न अंग होता है । इस प्रकार के वातावरण में प्रत्येक सदस्य हँसते-हंसते अपने उत्तरदायित्व का पालन करता है, सहज ही बड़े-से-बड़े बोझ को हो लेता है, प्रयोजनपूर्णा जीवन व्यतीत करता है पौर शांतिपूर्ण तथा सुखद वातावरण सर्वत्र व्याप्त रहता है।
अतएव यह सष्ट है कि मानवीयता के विकास में आध्यात्मिकता एक विशिष्ट प्रकार की सर्जन-यशक्ति है। विज्ञान, दर्शन और कला में प्रतिभासित होने वाले अनुभूति प्रधान जीवन-सत्यों की में यह नैतिकता तुलना प्रधान सत्यों के साक्षात्कार पर अधिक जोर देती है। संसार के सभी प्राध्यात्मिक संत प्रमुख वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और कलाकारों की भांति ही मानवीय श्रेष्ठता के क्षेत्र में सर्जनहार महान व्यक्ति हुए हैं। यह प्राध्यात्मिक साधना भी अन्य साधनानों की ही तरह सतत प्रयत्नसाध्य है। अन्य क्षेत्रों में महान् प्रयत्नों के बाद विधान संभव है; किन्तु आध्यात्मिक पथ का पथिक एक बार इस मार्ग पर चल कर रुकना नहीं जानता । श्रध्यात्म साधना का पथ अनेक प्रकार के कष्टों, निराशाओं, सफलताओं पर अग्निपरीक्षाओं से परिव्याप्त होने पर भी ग्रानंदहीन, शुष्क तथा अंधकारपूर्ण नहीं है। वस्तुतः अध्यात्मवादी व्यक्ति के लिये यही अरण प्रसीम आनंदा नुभूति और विशुद्ध सर्जकता के क्षण है। अध्यात्म का सच्चा साधक किसी भी मूल्य पर इन साधनापूर्वक क्षणों का सौदा करने के लिये तैयार नहीं हो सकता ।
आध्यात्मिकता का उद्देश्य उस परम सत्य का साक्षात्कार करना है जो ऋद्धि-सिद्धि और धन-संपदा से परे है, जो प्राणीमात्र के प्रति समताभाव जाग्रत करता है एवं जो प्रत्येक जीवात्मा के प्रति प्रादर बुद्धि उत्पन्न करता है। यह एक ऐसा लक्ष्य है जिसमें मनुष्य अपने सामाजिक वातावरण एवं समूचे विश्व के साथ तादात्म्य संबंध स्थापित करके श्रात्म शक्ति में निस्पृहतामूलक परिवर्तन उत्पन्न करता है । श्रतएव आध्यात्मिक प्रक्रिया सर्वा विशुद्ध होती है। माध्यात्मिक व्यवहार केवल
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प्राध्यात्मिकता के लिये ही किये जाते हैं, सुखाभिलाषा या उपयोगिता उनका उद्देश्य नहीं होता उदाहरणार्थं, हम अपने जीवन में सच्ची मित्रता और मित्रताभास में अंतर करते हैं। सच्ची मित्रता का मूलाधार परोपकार वृत्ति है और यह अपने आप में परिपूर्ण है। मित्रताभास । में एक व्यक्ति दूसरे को केवल मित्रता के लिये नहीं चाहता वरन उसकी उपयोगिता या उससे अभिलाषा पूर्ति की कामना ही संबंध स्थापित करने की मूलधार होती है। यदि मित्र की उपयोगिता या मनोकामना पूर्ण करने की क्षमता समाप्त हो जाय तो मित्रता का भी संत हो जाता है। आध्यात्मिक प्रवृत्ति भी समी मित्रता की तरह, निस्पृह और कल्याणकारी होती है । आध्यात्मिकता से परिपूर्ण स्थिति में शत्रुओं से भी प्यार किया जाता है, घृणा करने वालों का भी भला किया जाता है, अभिशाप देने वालों को भी आशीर्वाद दिया जाता है और हिंसकों को भी हिंसा का वरदान दिया जाता है। माध्याम-साधना की इससे बडी परिभाषा और क्या हो सकती है कि मनुष्य प्राणी मात्र को अपना मित्र समझे, गुणी जनों को देखकर ग्राह्लादित होना सीख ले, स्लिष्ट प्राणियों की सेवा करना सोख ले, विपरीतवृत्ति वालों के साथ तटस्थता से रहना सीख ले और चोट पहुंचाने वालों के साथ भी सहिष्णुता दर्शाना सीख ले | सच बात तो यह है कि सर्वोदयीकरण हो अध्यात्म साधना में अभीष्ट है। यह आजकल प्रचलित अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक कल्याण वाली लोकतंत्री भावना से सर्वथा विपरीत है । बहुसंख्यक समाज का उत्कर्ष एवं कल्याण मध्यात्मवादी दृष्टि नहीं है, अपितु प्रत्येक जीवात्मा का कल्याण ही इसकी विषयवस्तु है।
किंतु संकुचित मौर एकांगी दृष्टिकोण के साथ आध्यात्मिकता का तालमेल किसी भी प्रकार नहीं बैठ सकता । संकोच और एकलांगता में स्वार्थवासना हो पनप सकती है, कल्याण मूलक प्राध्यात्मिक प्रवृत्ति नहीं । अनेकान्तवादी दृष्टिकोण, वस्तुतः अध्यात्मवाद का प्राणस्थल है । अनेकान्तवादी दृष्टि की तुलना जननी माता के साथ की जा सकती है जो अपने सभी परस्पर
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