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________________ ४६ से दृढ़तर होता चला जा रहा है कि यद्यपि संसार का करने में कठिनाई नहीं होती कि केवल स्वार्थवश किया हर नया पंथ दुर्दशाग्रस्त संसारी जनों के लाभार्थ उच्च- गया कार्य प्राध्यात्म में अन्तभूत नहीं होता। स्वार्थहम प्राशामों और महानतम संभावनाओं के वातावरण साधना से ऊपर उठ कर लोकहित की दृष्टि से किये में प्रस्फुटित हया है। फिरभी, कुछ ही वर्षों के उपरान्त गये कार्य अध्यात्म में समाविष्ठ होते हैं । संक्षेप में यह वह निर्वीर्य होकर अंधकाराच्छन्न भी हो गया है। कुछ कहा जा सकता है कि परोपकार की भावना अध्यात्म लोग यह भी कहते हए पाये जाते हैं कि यद्यपि धर्म का मूलाधार है। मानवीय विवेक का उच्चतम प्राधार है, किन्तु संसार उदाहरणार्थ, यह सभी जानते हैं कि कोई भी के प्रत्येक धर्म का उदय गर्भपतित बालक की भांति हुआ व्यक्ति अपने वर्ग के सदस्यों के प्रति थोड़ी-बहुत परोपहै धार्मिक श्रद्धा की महामारी में न मालूम कितने नीम कारी वृत्ति दर्शाये बिना जीवित नहीं रह सकता । यदि हकीम सुधारक पाखण्ड को बांट-बाट कर अपने जेबें नव जात शिशुनों का माताएं लालन-पालन न करें तो गरम कर चुके हैं और प्राज भी गरम कर रहे हैं। ऐसे उनका जिंदा रहना सम्भव नहीं है, और उनकी मृत्यु धार्मिक प्रतिनिधि विश्वासघाती है, क रता के नग्न उपासक से उनके वर्ग की समाप्ति ही हो जायगी । उनका हैं एवं शून्यता के प्रतीक हैं। पालन-पोषण भी सदा सुखद नहीं होता, कभी-कभी तो __छान बीन करने पर उपयुक्त आक्षेपों में निहित इसका प्रतिफल हानि कारक भी हो जाता है । उसी सचाई से इन्कार नहीं किया जा सकता । विश्व इतिहास प्रकार, यदि बीमारों, अपंग और वृद्ध व्यक्तियों की सेवा यह भी बतलाता है कि संसार में जो भी बड़ी-बड़ी भावना से परिचर्या न की जाय तो उनका जीवित बच संस्कृतियां उत्पन्न हुई उनका मूलाधार धर्म हो रहा है। सकना भी अशक्य है । अतएव यह स्पष्ट है कि प्रेम, किंतु, धर्म बदलती हुई परिस्थितियों, वैज्ञानिक दृष्टिकोण सहानुभूति, परोपकार, दया और करुणा की भावनाओं और प्रगतिशील विचार धारामों के अनुसार अपने बाह्य पर ही संसार जीवित हैं । केवल स्वार्थपूर्ण भावनामों रूप में परिवर्तन नहीं कर सका । फलतः वह कालान्तर के आधार पर ही कोई भी समाज जिंदा नहीं रह में पुराना पड़ गया और धीरे-धीरे उसका कल्याणकारी सकता । केवल स्वार्थसाधक सदस्य शांतिपूर्ण, सुखी और सामर्थ्य क्षीण होता चला गया। धर्म की शक्ति क्षीण निर्माणकारी समाज को रचना नहीं कर सकते । यदि होते ही संस्कृतियों का सामर्थ्य भी लुप्त होता चला मनुष्यों में पारस्परिक सहानुभूति और कर्तव्य-भावना गया । प्रगतिशील वैज्ञानिक विचार धारा और स्वकीय __ न हो तो इसका अंत निरन्तर संघर्ष में ही हो सकता है । ऐतिहासिक परम्परा के परस्पर सम्मिश्रण का प्रभाव ऐसी स्थिति में केवल संदेह, अविश्वास और पारस्परिक वस्तुतः संसार के सभी धर्मों की एक बहुत बड़ी कम षड़यंत्र तथा छीना झपटी की फसल ही उग सकती है। जोरी रही है। इस कमजोरी का मुख्य कारण धर्मों में सोशल मेंनिसकी सारी उसकी प्राध्यात्मिकता का अभाव या हास रहा है । प्राध्या कहावत जन जीवन का सामान्य नियम बन जाएगा। त्मिक सामर्थ्य के प्रभाव में धर्म प्रायः आदर्श जीवन एक सुखी, शांत और समृद्ध समाज की कल्पना तभी की नीति मात्र बन कर रह गये हैं; जीवन के प्रभिन्न की जा लकती है जबकि इसके सदस्यों में न्यूनतम मात्रा और अपरिहार्य अंग नहीं। में प्रेम, सहानुभूति, दया और सेवा की भावना मौजूद यहाँ पर प्राध्यात्मिकता की पाण्डित्यपूर्ण परिभाषा हो। इसके बिना पारस्परिक सहकार, सद्भावना और करने की प्रावश्यकता नहीं है। हम अपने दैनिक कार्य- भलाई सम्भव नहीं है। एक सखी समाज में सम्म व्यापार में लोगों के व्यवहार को देख कर यह अनुमान परस्पर संगठित होते हैं और 'अहं' का त्याग कर सामूसहज ही लगा सकते हैं कि कौनसा कार्य प्राध्यात्मिक हिक रूप से "हम'' के जरिये भावाभिव्यक्ति करते हैं। है और कौनसा नहीं। सामान्यतया हमें यह अनुभव ऐसी स्थिति में उनके सुख-दुख की अभिव्यक्ति व्यक्तिगत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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