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पाँच मुक्तक
• 'तन्मय' बुखारिया
देह नित निबंध, प्रात्मन् फंस रहा है, मन अपाहिज हो धरा में धंस रहा है, दिल्लगो इससे बड़ी क्या और होगी, आदमी अब चन्द्रमा पर बस रहा है ।
उम्र की सूखी चिता पर जल रहा है, मौत खुद छलना उसे नर छल रहा है, मुक्ति की मंजिल नजर आए कहाँ से, कर्म की पगडंडियों पर चल रहा है ।
नर ही नारायण है, स्वयमेव को पहिचानो तुम, आँख के काजल के अस्तित्व को अनुमानो तुम, कर्म के कस में है कैद मगर सोता नहीं, अपने चैतन्य को हरवक्त सजग जानो तुम ।
लक्ष्य से दूर, बहुत दूर हो, मुख को मोड़ो, बुद्धि के तीर को चतुराई से साधो, छोड़ो, राग भी पाप कहा, जिसने तुम उसके साधक, द्वेष के पूर्व स्वपर राग से नाता तोड़ो ।
नीर बदली में नहीं, भादों में सावन में है, ज्योति तारों में नहीं, नेत्र के दर्पण में है, धर्म के नाम पै नफरत को उगाने वालो, धर्म मन्दिर में नहीं, विश्व के जन-जन में है।
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