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धर्म का मापदराडआध्यात्मिकता
• डॉ. रतनकुमार जैन
एम. कॉम., पीएच. डी. नागपुर
प्राध्यात्मिकता का कलात्मक ढंग से प्रस्फुटन धर्म से होता है। धर्म अध्यात्मिकता को विकसित करने के लिये सहकारी संगठन प्रदान करता है। यह धार्मिक संगठन भी प्रतिस्पर्धी तत्वों से सर्वथा मुक्त है इसमें विशाल पैमाने पर समूतात्तर्गत प्राध्यात्मिकता के साथ-साथ समूहवाय प्राध्यात्मिकता पाई जाती है । इसमें आध्यात्मिकता का प्रदर्शन आत्यंतिक तीव्रता, पूर्ण विशुद्धता, सर्वोतम मानवता-प्रेम तथा असीम लोक कल्याण के रूप में होता है। सच बात तो यह है कि समग्र धर्म का मापदण्ड ही आध्यात्मिकता है । आध्यात्मिकता के बिना धर्म थोथा है, विषाक्त साम्प्रदायिकता है और संकीर्णता तथा क्षुद्रता का पतनोत्मुख प्रवेश द्वार है ।
धार्म मानवीय जीवन के अंतिम मूल्यों और सर्वोच्च गहनतम नियम साथ-साथ है। धर्म केवल नैतिक तथा
- प्राचार-विचार की व्याख्या करता है। जीवन के सामाजिक व्यवस्था को प्रेरित करने वाला मत, पद्धति इन चरम सत्यों और प्राचार-विचार का प्रादुर्भाव मनुष्य या आदर्श मात्र नहीं है, प्रत्यु। यह हमारे जीवनके प्रबुद्ध अन्तर्ज्ञान, तर्कसंगत अनुभूति तथा इन्द्रियजन्य व्यवहारों के सभी अंगों को अनुप्राणित करता है । वे वस्तुबोध से होता हैं : इस प्रकार धर्म में मानव जीवन प्रवृत्तियां जो मनुष्य को न्यायोचित तथा शुद्ध जीवन के श्रेष्ठतम तत्वों और सर्वोच्च प्राचार-विचार का व्यतीत करने में सहायता प्रदान करती हैं स्वभावतः धर्म अतिशय सम्मिश्रण पाया जाता है । उच्च धरातल पर का अनिवार्य अंग बन जाती हैं। इस प्रकार धर्म हमारे स्थित यह अन्तश्चेतना और जागृत अनुभूति प्रात्मा को लिये एक वास्तविक आवश्यकता है, काल्पनिक आदर्श एक ऐसी अवस्था में केन्द्रित कर देती है जो ईश्वरत्व नहीं। प्रकृति-प्रदत्त जीवन का कार्यकारी विधान होने के साक्षात्कार का संकेत देती है। परमात्मा की प्रोर के कारण धर्म समाज के सभी सदस्यों के लिये आदर्श अग्रसर करने वाली प्रात्मा की इस अवस्था का तर्क या जीवन-व्यवहार की व्याख्या करने वाला सचेतन इन्द्रियगम्य अनुभूति के जरिये व्याख्यान नहीं किया प्रयत्न है। जा सकता। संक्षेप में इतना कथन ही पर्याप्त है कि धर्म यद्यपि हर एक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न-भिन्न होता प्रबद्ध अन्तश्चेतना, सद्विवेक और श्रेष्ठ प्राचार-विवार के है, अतएव एक ही तरह की अपरिवर्तनीय और सुनिश्चित सम्मिश्रण से उत्पन्न एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें आत्म व्यवस्था से उसके जीवन-व्यवहार को नियंत्रित नहीं स्वानुभूत प्रयोगों के जरिये परमात्मा बन जाता है। किया जा सकता । फिरभी, सभी प्राणियों में कुछ
धर्म की लौकिक कसौटी यह है कि यह हमारे सामान्य तत्व पाये जाते हैं और उनके आधार पर जीवन का व्यावहारिक विधान और हमारी प्रकृति का जीवन के व्यवहार तथा प्रादर्श को अवश्य तय किया
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