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मुनीन्द्र । मुक्ति प्राप्त करने का और कोई सरल मार्ग प्रो० विरुपाक्ष वाडियर वेदों में जैन तीर्थ करों के नहीं है।
उल्लेखों का कारण उपस्थित करते हुए लिखते हैं:उपयुक्त दोनों उद्धरणों के शब्द और भाव देखने प्रकृतिवादी मरीचि ऋषभदेव का पारिवारिक था। वेद से सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि दोनों स्तुतियां उसके तत्वनुसार होने के कारण ही ऋग्वेद आदि ग्रन्थों एक ही व्यक्ति को लक्षित करके की गई हैं।
की ख्याति उसीके ज्ञान द्वारा हुई है । फलतः मरीचि वेदों में ऋषभदेव, सुपार्श्व, अरिष्टनेमि, महावीर ऋषि के स्तोत्र वेद-पुराण आदि ग्रन्यों में हैं और स्थान आदि तीर्थकरों का उल्लेख किया गगा है। इसकी स्थान पर जैन तीर्थकरों का उल्लेख पाया जाता है। पुष्टि राष्ट्रपति डा० राधाकृष्णन', डा० अलब्र खेबर२, कोई ऐसा कारण नहीं कि हम वैदिक काल में जैन धर्म प्रो० विरुपाक्ष वाडियर, डा० विमलाचरण लाहा।
का अस्तित्व न मानें ५ प्रभृति विद्वज्जन भी करते हैं।
कह चरे ? कहं च? ? कहमासे ? कहं सए ?
कहं भुजन्तो भासन्तों पावं कम्मं न बन्धइ ? ( भन्ते ! कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? जैसे सोए ? कैसे भजन करे ? कैसे बोले ?--जिससे कि पाप कर्म का बन्ध न हो )
जयं चरे जयं चट्टे जय मासे जयं सए !
जयं भुजन्तो भासन्तो पाव कम्मं न बन्धइ !! ( आयुषमन् ! त्रिवेक से चलो; विवेक से खड़ा हो; विवेक से बैठे; विवेक से सोप: विवेक से भोजन करे और विवेक से ही बोले तो पाप कर्म नहीं बंध सकता
1 Indian Philosophy, Vol. I. P. 287 2. Indian Antiquary, Vol. 3, P. 901 ३. जैनपथ प्रदशक (आगरा) भा० ३, अं० ३, पृ० १०६ । 4. Historical Gleanings. P. 78 ५. अजैन विद्वानों की सम्मतियां, पृ० ३१
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