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________________ संचालित कम्पनशील विश्व में अनन्त संकोच-विस्तार क्रम से चलती थी? यह प्रश्न हम हमारी कल्पना के की कल्पना की गई है। अतः स्वतः संचालित कम्पनशील- बल पर अपने पापको पूछ सकते हैं। इससे आगे यह विश्व के साथ जैन दर्शन के अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी कल्पना भी कर सकते हैं कि क्या साठ से अस्सी करोड सिद्धान्त की जितनी सदृशता उतनी इस सिद्धान्त के वर्ष पूर्व प्राप यह पुस्तक उल्टे क्रम से अन्तिम पृष्ठ से साथ नहीं है । प्रारम्भ कर आदिम पृष्ठ की अोर पढ़ रहे थे ? अथवा डा. ज्योर्ज गेमो का 'उद्विकासी विश्व-सिद्धान्त' कल्पना को इससे भी प्रागे दौड़ाने पर, यह प्रश्न भी भी 'प्रतिपरवलीय विश्व-सिद्धान्त पर आधारित है। हो सकता है कि क्या उस समय मनुष्य अपने मुह में यद्यपि डा० गेमो के सिद्धान्त की चर्चा' 'सादि विश्व- से पकाई हुई मुर्गी निकाल कर, अपने रसोई घर में सिद्धान्तों के अन्तर्गत की जाती है, फिर भी वस्तुतः उसमें जीवन डाल कर, उसे बाहर खेत में भेजा करते तो अतिपरवलीय विश्व-सिद्धान्त' पर आधारित होने के थे, जहा वे मुगियां वृद्धावस्था से युवावस्था और यूवावकारण डा० गेमो द्वारा प्रतिपादित 'उद्विकासी विश्व' भी स्था से बाल-अवस्था को प्राप्त होती हुई अन्त में अण्डे काल की दृष्टि से अनादि अनन्त हो ही जाता है। इस का स्वरूप धारण कर लेती थी ? इस प्रकार के प्रश्नों तथ्य की पुष्टि डा० गेमों के शब्दों में ही होती हैं। का उत्तर निकेवल वैज्ञानिक आधार पर नहीं दिया जा इस प्रकार काल की दृष्टि से शाश्वत विश्व के साथ सकता। क्योंकि जब विश्व सिकुड़ता सिकुड़ता उत्कृष्ट सामंजस्य तो रखता है, किन्तु इससे अधिक इनमें कोई स्थिति को प्राप्त हना था तब विश्व-स्थिति समस्त जड़सादृश्य नहीं है। राशि केवल एक छोटे-से अरण के भीतर समाहित हो गई थी और इस प्रक्रिया के कारण संकोचमान विश्व में ___ जैन दर्शन के अवसपिणी-उत्सर्पिणी सिद्धान्त और कौन-सी क्रिया किस रूप में होती थी? 'इसका उद्विकासी विश्व-सिद्धान्त में एक विलक्षण वैसदृश्य सारा इतिहास ध्वस्त हो गया ।' डा. गेमो द्वारा किये दिखाई देता है । जैन दर्शन के अनुसार वर्तमान युग गये इस निरूपण की समीक्षा जैन दर्शन के 'कालचक्रीय अवसपिणी कालचक्र के अन्त के समीप का है। अर्थात सिद्धान्त' के प्राशोक में करने से सुसिद्ध वैज्ञानिक की वर्तमान काल से लगभग ३६५०० वर्ष पश्चात् उत्स दिचित्र कल्पनामों का और प्रश्नों का समाधान सहज पिणी काल का प्रारम्भ होगा, जब कि उद्विकासी विश्व रूप से मिलना सम्भव हो सकता है । अवसर्पिणी सिद्धान्त के अनुसार वर्तमान युग विस्तार-मान' काल और उत्सपिणी काल में प्रकृति की प्रक्रिया का प्रारोहके प्रारम्भ के समीप का है। अर्थात् लगभग ५० करोड़ अवरोह होता है, इसके आधार डा० गेमो के प्रश्नों का वर्ष पूर्व ही विश्व का 'संकोच' काल समाप्त हमा। उत्तर यही है कि प्रकृति की प्रक्रियाओं के उलटने का इस प्रकार प्रथम जहां वर्तमान को 'अवरोह' के अन्त अर्थ 'पुस्तक को अन्त से शुरू कर प्रादि तक पढ़ाना' के समीप मानता है वहां दूसरा प्रारोह' के प्रारम्भ के मोर 'मुह से मुर्गो निकाल कर मुर्गी ह्रास होकर अण्डे समीप स्वीकार करता है। में प्रविष्ट होना' प्रादि नहीं है । किन्तु उसका अर्थ होता डा० गेमो ने 'उद्विकासी-विश्व' के प्रतिपादन में है-पूगल के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन मूल गुरणों एक मनोरंजक कल्पना की है । सिकुड़ते हुए और की पर्यायों में हानि-वृद्धि होना और इसके परिणाम विस्तत होते हए विश्व में काल-प्रवाह के साथ विश्व की स्वरूप ही मनुष्यों के प्रायुष्य, ऊंचाई, अस्थि-संख्या अन्य प्रक्रियामों पर क्या प्रभाव रहा होगा, इस विषय प्रादि जीवन से सम्बन्धित प्रक्रियाओं में प्रवसर्पिणी काल में निरूपण करते हए डा. गेमो लिखते हैं, १ जब विश्व में उत्तरोत्तर ह्रास और उत्सपिणी काल में उत्तरोत्तर सिकूड़ रहा था, तब क्या विश्व की सभी प्रक्रियाएं उल्टे विकास होता है। १–'वन, दू, थी,. . . . . . . . . . . 'इनफिनिटी', पृ० ३३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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