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और परिणामस्वरूप जितनी भी समस्याएं इस परिकल्पना के स्वीकार से जन्म लेती हैं स्वयं ही समाप्त हो जाती हैं । श्रतः प्रस्तुत सिद्धान्त और उक्त सुझाव के संयुक्त आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व श्राकाश स्थित तारा पुंज काल-प्रवाह के साथ एक दूसरे से दूर और समीप गति करते रहते हैं, जब ये तारा पुज एकदूसरे से दूर या निकट होते हैं, तब लाल - रेखा में तदनुरूप परिवर्तन श्राता रहता है। वर्तमान काल में ये एक दूसरे से दूर हो रहे हैं, इसलिए हम लाल - रेखा की कम्पन प्रावृत्ति में कमी होती देख रहे हैं। भविष्य में जब इनकी वर्तमान विरोधी गति उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त कर लेगी, ये एक दूसरे के निकट होना प्रारम्भ कर देगे और लाल रेखा का परिवर्तन वर्तमान में निरीक्षित परिवर्तन से विपरीत होगा अर्थात् लाल रेखा की कम्पनश्रावृत्ति में वृद्धि होगी। जब इनका निकट होना उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त होगा, पुनः ये दूर होना प्रारम्भ कर देंगे । इस प्रकार काल-प्रवाह साथ तारापुजों की गति की दिशा बदलती रहेगी और परिणामस्वरूप तारापुंज दूर और निकट होते रहेंगे । परन्तु इन गतियों का ( दूर और निकट होने का ) विश्व प्रकाश पर कोई गति सम्बन्धी प्राभाव नहीं पड़ेगा अर्थात् किसी भी स्थिति में विश्व आकाश तो प्रगतिशील हो रहेगा और अपने वर्तमान घनफल ( Volume ) को चाहे वह सान्त हो या अनन्त, अचल रख लेगा ।
यह प्रतिपादन हमने केवल मूलभूत विश्व-समीकरण के फ्रीडमान द्वारा लिए गये एक प्रकार के हल पर श्रावारित 'स्वतः संचालित कम्पनशील विश्व' सिद्धान्त तथा सामान्य तर्क पर आधारित उस सुझाव के संयुक्त आधार पर किया है। इस प्रतिपादन को जैन दर्शन का समर्थन कहां तक प्राप्त हो सकता है, इसके विषय में भी चिन्तन करना चाहिए। यह प्रतिपादन प्रगतिशील, स्थिर घनफल आकाश के निष्कर्ष पर हमें पहुंचाता है, इस दृष्टिकोण से जैन दर्शन का समर्थन इसे प्राप्त हो जाता है । किन्तु तारा पुजों की गति वास्तविक है या नहीं, इसके विषय में जैन दर्शन न तो समर्थन करता है और न विरोध ।
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चक्रीय विश्व
आइन्स्टीन के 'द्रव्य और शक्ति की समानता' के नियम पर ग्राधारित यह सिद्धान्त विश्व को निर्माण और ध्वंश के अनन्त चक्रों में से गुजरने वाला शाश्वत घोषित करता है । वैज्ञानिक जगत् में यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो जैन दर्शन के कालचक्र- सिद्धान्त के साथ अधिकतम सामंजस्य रखता है । 'चक्रीय विश्व- सिद्धान्त' और 'अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी का सिद्धान्त' स्थूल रूप से एक ही तथ्य का निरूपण करते हैं कि विश्व की प्रक्रियामों में काल-प्रवाह के साथ निर्माण और ध्वंस क्रमशः होता रहता है और इन चक्रों के चलते रहने पर भी विश्व का अस्तित्व अनादि श्रनन्त है । दोनों सिद्धान्तों की सूक्ष्म दृष्टि से तुलना करना वर्तमान में सम्भव नहीं है, क्योकि जैन दर्शन में 'कालचक्रों' की काल-गणना जिन मानों में हुई है, उनका व्यावहारिक गणित में परिवर्तन करना कठिन है । दूसरा, चक्रीय विश्व- सिद्धान्त जिस रूप में ध्वंस और निर्माण की कल्पना करता है, वह प्रति स्थूल । उसका व्यावहारिक जगत् को प्रक्रियाओं के साथ सम्बन्ध नहीं है । जबकि जैन दर्शन में 'अवसर्पिणी - उत्सर्पिणी' द्वारा व्यवहारिक प्रक्रियाओं में आने वाले प्रारोह-अवरोहों का चित्रण किया गया है।
'चक्रीय विश्व- सिद्धान्त' के विषय में निम्न दो बातें उल्लेखनीय हैं :
१. यह सिद्धान्त जिन परिकल्पनाओं पर प्राधारित है, वे ठोस प्रयोगिक और सैद्धान्तिक आधार पर निर्मित हैं ।
२. चक्रीय विश्व- सिद्धान्त के विषय में विश्व का केवल काल को दृष्टि से ही निरूपण किया गया है । अतः, विश्व श्राकाश विस्तारमान है या स्थिर इसके विषय में यह सिद्धान्त कुछ भी नहीं कहता । अतिपरवलीय विश्व
अतिपरवलीय विश्वसिद्धान्त और स्वतः संचालित कम्पनशील विश्व- सिद्धान्त में केवल इतना हो अन्तर है कि अतिपरवलीय विश्व-सिद्धान्त विश्व को काल की दृष्टि से अनादि अनन्त मानता हुआ भी उसमें केवल एक संकोच विस्तार की कल्पना करता है, जब कि स्वत:
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