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________________ जैन दर्शन और विज्ञान के आलोक में पारोह-अवरोहशील विश्व • मुनि श्री महेन्द्रकुमार "द्वितीय' बी. एस. सी. (Hens) आईन्स्टीन के 'द्रव्य और शक्ति की समानता' के नियम पर आधारित यह सिद्धान्त विश्व को निर्माण और ध्वंश के अनन्त चक्रों में से गुजरने वाला शाश्वत घोषित करता है । वैज्ञानिक जगत् में यह एक ऐसा सिद्धान्त है, जो जैन दर्शन के कालचक्र-सिद्धान्त के साथ अधिकतम सामंजस्य रखता है। "चक्रीय विश्वसिद्धान्त" और "अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का सिद्धान्त" स्थूल रूप से एक ही तथ्य का निरूपण करते हैं कि विश्व की प्रक्रियामों में काल-प्रवाह के साथ निर्माण और ध्वंस क्रमशः होता रहता है और इन चकों के चलो रहो पर भी विश्व का अस्तित्व अनादि-अनन्त है। लाल-प्रवाह के साथ विश्व-प्रक्रियानों में प्रारोह- करते हैं और वाल-प्रवाह के साथ विश्व के प्रारोह - अवरोह पाते रहते हैं।' इस प्रकार का अवरोह का प्रतिपादन भी। किन्तु यह प्रतिपादन विश्व निरूपण वैज्ञानिकों के द्वारा 'स्वतः संचालित कम्पनशील के भिन्न-भिन्न पहलुओं के विषय में है। 'स्वतः संचाविश्व', 'प्रतिपरवलीय विश्व' और 'चक्रीय विश्व' के लित कम्पनशील विश्व-सिद्धान्तों' विश्व-प्राकाश में सिद्धान्त के रूप में किया गया है। दूसरी ओर जैन दर्शन संकोच और विस्तार के रूप में प्रारोह-अवरोह की के अवसर्पिणी-उत्सपिणी काल-चक्र का सिद्धान्त इसी तथ्य कल्पना करता है। जब कि जैन दर्शन प्रथसपिणी और का निरूपण करता है, इनमें परस्पर कहां तक समानता उत्सर्पिणी काल-चक्र के रूप में 'समयक्षेत्र' की कुछ हो सकती है, इसकी चर्चा सरस और उपयोगी होगी। प्राकृतिक प्रक्रियानों के विषय में यह निरूपण करता है। स्वतः संचालित कम्पनशील विश्व इस प्रकार यह साम्य केवल औपचारिक हो जाता है। ___ स्वतः संचालित कम्पनशील विश्व की कल्पना प्रस्तुत सिद्धान्त के विषय में ध्यान देने योग्य दूसरी विश्व-विस्तार के सिद्धान्त पर आधारित है। अत: जैन बात यह है कि 'विस्तारमान-विश्व' के सम्बन्ध में दर्शन का जो मतभेद विश्व-प्राकाश के विषय मै लाल-रेखा- परिवर्तन की प्रक्रिया वेवल तारा पुजों की 'विस्तारमान-विश्व-सिद्धान्तों के साथ है, वह इसके साथ गति की सूचक है, प्रकाश के विस्तार की नहीं। भी स्वाभाविक रूप से हो ही जाता है। परन्तु काल के प्रो० टोलमेन का 'स्वतः संचालित कम्पनशील विश्व' दृष्टिकोण से विश्व के निरूपण के विषय में यह सिद्धान्त का प्रतिपादन 'नये जड़ की उत्पत्ति' की परिकल्पना पर और जैन दर्शन एक-दूसरे के वहुत निकट आ जाते हैं। प्राधारित है । यदि उक्त सुझाव को स्वीकार कर लिया दोनों ही विश्व के अस्तित्व को प्रनादि-अनन्त स्वीकार जाये, तो इस परिकल्पना की अावश्यकता नहीं रहती. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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