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________________ २३ में तो यह क्रम बीसवीं शती तक भी मिलता है । जयाचार्य लिखित 'भिक्षु जस रसायण' इस क्रम का सम्भवत: अंतिम ग्रन्थ हो । मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य भी प्रचुरमात्रा में उपलब्ध होता है । इस काल में अनेक महाकाव्य, खण्डकाव्य, कथाकाव्य, आत्मकथा आदि लिखे गए है। पंडित बनारसीदास का 'अर्थ कयानक' जैन हिन्दी साहित्य में ही नहीं; अपितु समग्र हिन्दी साहित्य में लिखा गया प्रथम आत्मकथा का ग्रन्थ माना जाता है । भूधरदास, यानतराय, टोडरमल आदि इसी युग के मान्य साहित्यकार हुए हैं। मापदंड उसका अर्थ- गांभीर्य बतलाया सौर भाषा को केवल बाह्य आवरण मात्र कहा, तब उनको उस दार्शनिकता के नीचे यही तो ध्वनित होता था कि हमारे भाषा के माध्यम पर मत सोचिए, धर्य गांभीर्य को देखिए और यह प्रकारान्तर से एक विद्वतापूर्ण स्पष्टी करण ही तो था । हिन्दी के प्राचीन कवि भी विभिन्न प्रकार के स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हैं । विद्यापति ' देसिल वयना सबजन मिट्ठा' कहकर यह बतलाना चाहते हैं कि उन्होंने देशी भाषा को इसलिए स्वीकार किया है कि वह सबको मिठास देने वाली है। कबीर अपने दबंग स्वभाव के अनुसार संस्कृत की कमजोरी और देशी भाषा की विशेषता बतलाते हुए अपना कारण प्रस्तुत करते हैं कि 'संसकिरत है कूपजल भाषा बहता नीर इसी प्रकार संतमना तुलसीदासजी प्रपनी भक्त-प्रकृति के अनुकूल नम्रता प्रदर्शित करते हुए' भाखा भणित मोर मति बोरी, कहकर बतलाते हैं कि में तो देशी भाषा में अपनी बात कहने वाला ग्रल्पक्ष व्यक्ति हूं। यह सब यहां बतलाने का तात्पर्य यह है कि उस समय देशी भाषा का पक्ष लेना साधारण कार्य नहीं था । बड़े-बड़े कवियों को भी स्पष्टीकरण देना आवश्यक प्रतीत होता था परन्तु जैन साहित्यकारों की प्रारम्भ से ही यह प्रकृति रही थी कि वे जनता तक पहुंचने के लिए जनभाषा को ही अपना माध्यम स्वीकार करते आए थे । हिन्दी भाषा के प्राविकाल में भी उन्होंने अपनी उस प्रकृति के अनुसार कार्य किया था । । 1 तेरहवीं शती से अपभ्रंश - प्रभावित प्राचीन हिन्दी में रचना होने लगी थी जैन लेखकों की कृतियों में सोमप्रभ का कुमारपाल प्रतिबोध, मेरुतुरंग का प्रबन्ध चिन्तामणि धादि हिन्दी साहित्य के उसी प्रादिम युग की कृतियां कही जा सकती हैं। धर्मसूरि के जबरासा में अपेक्षाकृत हिन्दी का अधिक निखार पाया जाता है । वह भी तेरहवीं शती का ही ग्रन्थ है तेरहवीं से सोलहवीं शती तक रासाग्रन्थों का बाहुल्य देखा जाता है। यों आगे अठारहवीं शती तक भी इस क्रम के हिन्दी ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं। 'रासा' शब्द की व्युत्पत्ति 'रहस्य' श्रथवा 'रसायरण' शब्द से मानी जाती है । राजस्थानी Jain Education International अर्वाचीन काल में हिन्दी जैन साहित्य ने नया मोड़ लिया प्रतीत होता है और वह उल्लासवर्धक है । प्राचीनकाल में प्रायः जो साहित्यकारों ने नया उतना नहीं लिखा जितना कि पौराणिक या सैद्धान्तिक साहित्य का भाषान्तर करते रहे। इस युग में अनेक नए क्षितिज सामने आए हैं। पौराणिक ग्रन्थों में से ऐतिहासिक गवेषणा की जाने लगी है । दार्शनिक मंतव्यों का तुलनात्मक विवेचन करने और समन्वय करने को प्रवृत्ति बढ़ी है। नए परिपेक्ष्यों में अपने मंतव्यों को परखने और उन्हें दुनियां के समक्ष रखने का सामर्थ्य विकसित 'हुधा है। अनेकानेक विद्वज्जन इस कार्य में जुटे हुए हैं। उन सब का धम जहां हिन्दी जैन साहित्य का मस्तक ऊंचा करेगा, वहां हिन्दी साहित्य में भी अपना गौरवपूर्ण स्थान बनाएगा । मराठी भाषा मराठी भाषा का जैन साहित्य अधिक प्राचीन नहीं है। यह प्रायः इधर के बार-सौ साढ़े चार सौ वर्षों में ही लिखा गया प्रतीत होता है। ज्ञातक साहित्य तो और भी कम समय का है। जो मराठी साहित्य उपलब्ध है वह प्रायः स्वतंत्र कृति न होकर संस्कृत, प्राकृत या अपभ्रंश आदि अन्य भाषाओंों की कृतियों का अनुवाद मात्र है। मराठी जैन साहित्य के बहुत से प्राचीन लेखक तो भट्टारक सम्प्रदाय के मुनि हैं। सर्वाधीन लेखकों में अनेक गृहस्थों का भाग रहा है आगे कुछ प्रमुख लेखकों तथा उनके ग्रन्थों का दिग्दर्शन कराया जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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