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चोटी के कवियों ने स्वयंभू-रामायण के उद्धरणों को प्राता जाएगा, त्यों त्यों यह प्रभाव अधिकाधिक स्पष्ट सुनकर यही राय प्रकट न की होती।
होता जाएगा। इन प्रादिकालीन साहित्यकारों के पश्चात् १०वी हिन्दी भाषा शती में पुष्पदन्त मान्य कवि हुए। उन्होंने महापुराण हिन्दी भाषा का आदि स्त्रोत अपभ्रंश भाषा है की रचना की । इन्हीं शताब्दियों में देवसेन, महेश्वरसूरी, जिस प्रकार प्राकृत का अंतिमकाल अपभ्रंश का आदिमपद्मकीर्ति धनपाल, हरिषेण, नयनंदि, धवल, प्रादि काल माना जाता है, उसी प्रकार अपभ्रंश का अंतिमने तथा उनके पश्चात् वीर, श्रीधर, कनकामर, धाहिल. काल ही हिंदी आदि प्रान्तीय भाषामों का आदिमकाल यशकीति प्रभृति जैन कवियों ने संसार को अपभ्रंश माना जाता है। कुछ विद्वानों का तो यह मत है कि की प्रति सरस कृतियां प्रदान की। तेरहवीं शती में अपभ्रंश के सम्पूर्ण साहित्य को हिन्दी भाषा का अभिन्न कलिकाल सर्वज्ञ सुप्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र ने इस भाषा अंग मानकर उसे उसका आदिकालीन साहित्य मानना का जो व्याकरण लिखा; उसमें उदाहरण स्वरूप दोहों चाहिए । डा. वासुदेव शरण अग्रवाल इस विषय में का बहुत ही सुन्दर उपयोग हुआ है। उनका वह लिखते हैं-हिंदी काव्यधारा का मूल विकास सोलह व्याकरण शृगार, करुण, वीर, भय एवं शांत आदि आने अपभ्रंश काव्यधारा में अन्तनिहित हैं, अतएव सभी रसों के जन-प्रचलित दोहों का संरक्षण करने वाला हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक क्षेत्र में अपभ्रंश भाषा सिद्ध हया है। उपर्युक्त सभी साहित्यकारों को अपभ्रंश को सम्मिलित किए बिना हिंदी का विकास समझ में के मध्यकालीन साहित्यकार कहा जा सकता है। पाना असम्भव है । भाषा, भाव, शैली तीनों दृष्टियों पश्चाद्वर्ती कवियों में नरसेन, सिंह, धनपाल, मारिण
से अपभ्रश का साहित्य हिन्दी भाषा का अभिन्न अंग क्यराज, पद्मकीति और रइधू आदि प्रसिद्ध कवि हैं। समझा जाना चाहिए । अपभ्रंश (८ से ११ तक), देशी महाकवि रइघू की २३ अपभ्रश कृतियां उपलब्ध है। भाषा (१२ से १७ तक) और हिन्दी (१८ से आज तक) उनमें पुराण, कथा, चरित्र, प्राचार, सिद्धान्त और पूजा
ये ही हिंदी के आदि, मध्य और अंत तीन चरण २ है। सम्बन्धी ग्रन्थ हैं । ये उस समय के कवि थे जब अपभ्रश मूलतः अपभ्रश की प्रकृति में १३वीं शती से जो भाषा का विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं में परिगमन प्रारम्भ परिवर्तन प्रारम्भ हुआ था, वह १७वीं शती तक एक हुअा था ।
कम से ढ़ल चुका था। वही हिन्दी का आदिकाल या अपभ्रंश भाषा प्राकृत और वर्तमान भाषाओं को प्राचीन हिंदीकाल माना जाना चाहिए । १६वीं शती जोड़ने वाली बीच की कड़ी के रूप में रही है । उनका तक उसका मध्यकाल और उसके पश्चात् अर्वाचीनकाल आदिमकाल प्राकृत से और अंतिमकाल हिन्दी आदि का प्रारम्भ होता है। वर्तमान भाषामों से सम्बद्ध रहा है। अपभ्रश भाषा अपने प्राथमिक काल में प्राकृत और अपभ्रश के के साहित्य ने भावधारा, विषय, छंद, शैली आदि अनेक समान प्राचीन हिन्दी साहित्यकारों को भी उस समय प्रकार के साहित्यिक उपकरण हिन्दी प्रादि वर्तमान के विद्वानों की अवज्ञा का शिकार होना पड़ा हो तो कोई भाषामों के साहित्य को प्रदान किए हैं। अभी तक आश्चर्य नहीं। तभी तो उस समय का प्रायः प्रत्येक अपभ्रश-साहित्य बहुत कम मात्रा में प्रकाश में आया लेखक जनभाषा में लिखने के लिए अपनी ओर से कोई है; अत: उसके प्रभाव का पूरा-पूरा अनुमान नहीं लगाया न कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। जा सका है, परन्तु ज्यों-ज्यों उसका साहित्य प्रकाश में अपभ्रश के कवियों ने जब काव्य की श्रेष्ठता का
१-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास २-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास-भूमिका
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