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________________ भट्रारक जिनदास ने हरिवंशपुराण (पूर्वार्ध) लिखा। स्थानों में विभिन्न रूप से परिपाक पाता गया। भोज मराठी जैन साहित्य के प्रथम ज्ञात कर्ता ये ही माने ने गुर्जर साहित्यकारों के भाषा विषयक स्वाभिमान पर जाते हैं इनका समय ईस्वी १७२८ से १७७८ तक का मधुर कटाक्ष करते हए जो यह लिखा है "अपभ्रशेन अनुमानित किया जाता है । तुष्यन्ति, स्वेन नान्येन गुर्जरा १।" वह यही सिद्ध गुरदास अपरनाम गुरणकोत्ति ने मराठी में श्रेणिक करता है कि गुजरों ने अपनी भाषा का कोई विशिष्ट पुराण, रुक्मिणी हरण, धर्मामृत और पद्मपुराण (अपूर्ण) क्रम विकसित किया था और वे उसको विशेष महत्व देने लगे थे। आदि की रचना की । जैन कवियों ने गुजराती भाषा के उस प्रारम्भिक ब्रह्म शांतिदास के शिष्य मेघराज, कामराज और विकासकाल से ही विशेष भाग लिया है। उन्होंने अपनी सुरिजन गुरुभाई थे । उनमें से मेघराज ने यशोधर चरित्र. कृतियों द्वारा उसके रूप को निरन्तर संवारा और सजाया गिरनारयात्रा (इसमें प्रथम चरण मराठी में और दूसरा यद्यपि जैन साहित्यकारों का दृष्टिकोण प्रायः काव्यचरण गुजराती में है) और पारसनाथ भवान्तर पादि, प्रधान न होकर अध्यात्म-प्रधान रहा है। उनकी प्रायः कामराज ने सुदर्शन पुराण, और चैतन्य फाग तथा कृतियां धार्मिक परिधि में ही लिखी गई हैं। फिर भी सूरिजन ने परमहंस नामक रूपक काव्य तथा दान-शील उस धार्मिकता की गोद में किलकारियां भरता हा तप-भावना-रास प्रादि ग्रन्य लिखे हैं। कवित्व भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । रास, फागु, वीरदास अपरनाम पासकीत्ति ने ईस्वी १३२७ में बारहमासा, कक्का आदि उस समय की विभिन्न विधानों सुदर्शन चरित्र तथा बहतरी (७२२ श्लोकों का समुदाय), में कवित्व का अजस्र प्रवाह बहा है ।। महाकत्ति ने ईस्वी १६६६ में आदि पुराण, लक्ष्मीचन्द्र ने रामायण, महाभारत जैसे बड़े-बड़े पौराणिक ईस्वी १७२८ में मेघमाला, जनार्दन ने ईस्वी १७६८ में पाख्यानों, तीर्थकरों के जीवन-चरित्रों तथा अनेकानेक श्रेणिक चरित्र; महितसागर ने सम्बोधसहस्रपदी, दामा लघु पाख्यानों से भी गुजराती भाषा के साहित्य को ने धर्मपरीक्षा, गंगादास ने पारसनाथ भवान्तर, जिनसागर समृद्ध बनाने में जैन लेखकों का विशेष योग रहा है। ने जीवंधर-पुराण और कैको प्रादि रत्नकीति ने ईस्वी गुजराती भाषा में जैनों द्वारा आगमिक तथा आध्यात्मिक १८१२ में उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला, जिनसेन ने साहित्य भी प्रचुरता से लिखा गया है । साहित्यिक स्तर ईस्वी १८२१ में जम्बू पुराण, ठकाप्पा ने ईस्वी १८५० पर उसका चाहे उतना महत्व न भी हो, पर इतिहास में पांडव पुराण, मकरंद ने रामटेक वर्णन, सटवा ने तथा भाषा विज्ञान की दृष्टि से वह समग्र साहित्य एक नेमिनाथ भवान्तर और देवेन्द्रकीत्ति ने कालिका पूराण अमूल्य निधि कहा जा सकता है । गुजराती भाषा के की रचना की। उपयुक्त सभी लेखक प्राचीन धारा के क्रमिक विकास का अध्ययन करते समय प्रत्येक शताब्दी वाहक कहे जाते हैं। में लिखे गए विभिन्न जैन ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारों की अर्वाचीन लेखकों ने भी सैद्धान्तिक तथा पौराणिक जोखा यादी उपेक्षा किसी भी प्रकार से नहीं की जा सकती। संस्कृत अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुवाद मराठी भाषा को प्राकृत और अपभ्रश के प्रायः समग्र प्राचीन वाङमय प्रदान किया है । का गुजराती में अनुवाद उपलब्ध किया जा सकता है। गुजराती भाषा आगमों के स्तवकार्थ तथा बालावबोध भी गुर्जर भाषा अपभ्रश भाषा जब प्रादेशिक भाषानों का रूप की ही देन है। कहना चाहिए कि जैन गुर्जर साहित्यदेने लगी थी. तभी से उसमें प्रदेशानुसार थोड़ा-थोड़ा कारों ने समग्र जैन वाङमय, जैन तत्वज्ञान और जैन पाक्य प्रारम्भ हो गया था । धीरे-धीरे वह विभिन्न संस्कृति को सफलतापूर्वक गुजराती भाषा में ढाला है । १-सरस्वती कंठाभरण २-१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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