________________
निषद्, प्रमाणनयतत्वालोक, स्याद्वाद रत्नाकर, धर्माभ्युदय महाकाव्य. जैनकुमार सम्भव, यशोधर रत्नाकरावतारिका, प्रमाणमीमांसा, व्यतिरेकद्वात्रिंशिका, चरित्र, पांडवचरित्र आदि की गणना प्रमुख रूप से कराई स्याद्वाद मंजरी, जैन-तर्कभाषा प्रादि के नाम प्रमुख रूप जा सकती है। गिनाए जा सकते हैं।
नाटकों में सत्य हरिश्चन्द्र, राघवाभ्युदय, यदुप्राकृत-भाषा के प्रागम ग्रन्थों पर संस्कृत-टीकाएं विलास, रघुविलास, नलविलास, मल्लिका मकरंद, लिखने का क्रम प्रारम्भ करने वालों में हरिभद्र का नाम रोहिणी मृगांक, वनमाला, चन्द्रलेखा विजय, मानमुद्रा सर्व प्रथम पाता है। उनका समय ८वीं शती है। भंजन, प्रबुद्ध रौहिणेय, मोहपराजय, करुरावजायुध, उन्होंने प्रावश्यक, दशवै कालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, द्रौपदी स्वयंवर आदि उल्लेखनीय हैं। हेमचन्द्राचार्य वे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और जीवाभिगम पर विशद टीकाएं प्रधान शिष्य रामचन्द्र ने अकेले ने ही अनेक नाटकों की लिखी है । मलधारी हेमचन्द ने अनुयोगद्वार पर और रचना की थी। इसी प्रकार उपमिति भवप्रांचा, कुवलयमलयगिरी नेनंदी, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, वृहत्कल्प, माला, पाराधना कथाकोष, आख्यानमरिएकोश, कथाव्यवहार, राजप्रश्नीय, चन्द्रप्रज्ञप्ति पर और आवश्यक पर रत्नसागर प्रादि कथा-साहित्य द्वारा जैन विद्वानों ने टीकाएं लिखीं । इनके अतिरिक्त दशवैकालिक उत्तरा- संस्कृत के कथा-साहित्य को भी अपूर्व देन दी है। ध्ययन आदि प्रागमों पर और भी अनेक विद्वानों ने प्रादि पुराण, उत्तर पुराण.. शांतिपुराण, महापुराण, टीकाएं तथा वृत्तियां लिखी हैं।
हरिवंश पुराण आदि ग्रन्थों से उनके पुराण-साहित्य की संस्कृत-व्याकरण क्षेत्र में भी जैनों का योग बहत समृद्धि को भी प्रच्छी तरह से जाना जा सकता है। महत्वपूर्ण रहा । जैनेन्द्र, स्वयंभू, शाकटायन, शब्दा- इसी प्रकार नीतिवाक्यामृत, अर्हन्नीति आदि म्भोज-भास्कर आदि संस्कृत-व्याकरणों के पश्चात् नीतिग्रन्थ, समाधितंत्र, योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, हेमचन्द्राचार्य का सर्वा गपूर्ण हेमशब्दानुशासन उस क्रम योग विद्या, अध्यात्म रहस्य, ज्ञानार्णव, योगचिन्तामणि, का उन्नत प्रयास कहा जा सकता है। उसके पश्चाद्वर्ती योगदीपिका आदि योग सम्बन्धी ग्रन्थ, सिद्धान्तशेखर, शब्दसिद्धि व्याकरण, मलयगिरी व्याकरण, विद्यानन्द ज्योतिष रत्नमाला गणित तिलक, भुवनदीपक, प्रारम्भव्याकरण, और देवानन्द व्याकरण रहे हैं । ये सब सिद्धि, नारचंद्रज्योतिषसार, वृहतपर्वमाला प्रादि ज्योतिष तेरहवीं शती तक के हैं । व्याकरण रचना का यह क्रम ग्रन्थ, छन्दोनुशासन, छन्दोरत्नावली आदि छन्दोग्रन्थ, वहीं समाप्त नहीं हो गया। बीसवीं शती में तेरापंथ काव्यानुशासन, अंलकार-चूड़ामणि, कवि शिक्षा, वाग्भटाश्रमणसंघ के विद्वान मुनि चौथमलजी ने भिक्षु शब्दा- लंकार, कविकल्पलता, अलंकारप्रबोध, अलंकार महोदधि . नुशासन नामक महाव्याकरण लिखकर उस कड़ी को प्रादि अलंकार-ग्रन्थ ओर भक्तामर, कल्याणमन्दिर, वर्तमान काल तक पहुंचा दिया है।
एकीभाव स्तोत्र, : जिनशतक, यमकस्तुति, वीरस्तव, इसी प्रकार कोश ग्रन्यों में धनंजय नाममाला, वीतराग स्तोत्र, महादेव स्तोत्र, ऋषिमण्डल स्तोत्र प्रादि अपवर्ग नाममाला, अमर कोश, अभिधान चिन्तामणि. स्तोत्र ग्रन्थ अपने-अपने क्षेत्र के महत्वपूर्ण ग्रन्थो में शारदीया नाममाला आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । गिनाए जा सकते हैं । इनके अतिरिक्त रत्नपरीक्षा, काव्य क्षेत्र में भी जैन विद्वान किसी से पीछे नहीं।
संगीतोपनिषद्, संगीतसार, संगीतमण्डल, यंत्रराज, रहे हैं। उन्होंने पद्यमय तथा गद्यमय अनेक उत्कृष्ट कोटि
सिद्धयंत्र चक्रोद्धार, वैद्यसारोद्वार, वंद्यवल्लभ आदि ग्रन्थ के काव्यों की रचना की है । उनमें पार्वाभ्युदय,
भी जैन विद्वानों के विस्तीर्ण ज्ञान क्षेत्र का बोध द्विसन्धानकाव्य, यशस्तिलक, भरत बाहुबलि महाकाव्य, द्वयाश्रय काव्य, त्रिषष्टिशलाकापूरुष चरित्र, नेमि निर्वाण जैन विद्वानों ने बहुत से जेनेतर-ग्रन्थों की टीकाएं महाकाव्य, शांतिनाथ महाकाव्य, पद्यानन्द महाकाव्य, भी लिखी है। साहित्य क्षेत्र में उनका यह उदार
सास कराते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org