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________________ दृष्टिकोण अभिनन्दनीय रहा है । अनेक ग्रन्थों की टीकाएं श्लोक पढे जाते हैं और खड़ी लाइन में पढ़ा जाए तो बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हैं । जै नेतर-ग्रन्थों पर लिखे गए कुछ दूसरी भाषा के । इसी प्रकार टेढ़ी लाइनों से पढ़े जाने प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ इस प्रकार हैं-पाणिनिव्याकरण पर पर अन्य-अन्य भाषाओं के श्लोक सामने आ जाते हैं। शब्दावतारन्यास, दिङनाग के न्याय-प्रवेश पर वृत्ति, वह ग्रन्थ अभी कुछ वर्ष पूर्व ही प्राप्त हुना है। अभी श्रीघर की न्यायकंदली पर टोका, नागार्जुन की योग उसे पूर्ण रूप से पढ़ा भी नहीं जा सका है। वह एक रत्नमाला पर वृत्ति, प्रक्षपाद के न्यायसूत्र पर टीका, वृहत्काय-ग्रन्थ है और कहा जाता हैं कि अपने समय वात्स्यायन के न्याय-भाष्य पर टीका भारद्वाज के वातिक के सभी विषयों का उसमें समावेश किया गया है । पर टीका वाचस्पति की तात्पर्य टीका पर टीका, उदयन उसमें उत्तर तथा दक्षिण भारत की भाषामों ने तो की न्यायतात्पर्य-परिशुद्धि की टीका, श्रीकंठ की न्याया स्थान पाया ही है पर अरबी आदि अनेक भारतीय लंकार वृत्ति की टीका । इनके अतिरिक्त मेघदूत, रघुवंश, भाषाओं का भी उस में प्रयोग हया है। कहा नहीं जा कादंबरी, नैषध और कुमार सम्भव प्रादि काव्यों की सकता कि उसके कर्ता कितनी भाषामों के धुरंधर टीकाएं भी सुप्रसिद्ध हैं । विद्वान थे और कितने विषयों में उनकी प्रतिभा ने जैन विद्वानों ने साहित्य-क्षेत्र में कछ ऐसे ना तथा चमत्कार दिखलाया था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति विचित्र प्रयोग भी किए है जो उनकी विद्वत्ता का प्रमाण डा० डा० राजेन्द्रप्रसाद से जब प्राचार्य श्री तुलसी का दिल्ली तो देते ही हैं पर साथ ही अपने प्रकार के केवल वे ही में मिलन हुअा था तब उन्होंने इस विषय में विस्तीर्ण कहे जा सकते हैं । उदाहरणार्थ सत्रहवीं शती के जैन जानकारी देते हुए प्राचार्य श्री से कहा था कि यह विद्वान श्री समयसुन्दर का 'प्रष्टलक्षी' नामक ग्रन्थ संसार के अनेक प्राश्चर्यों में से एक आश्चर्य कहा गिनाया जा सकता है। उसमें 'राजानों ददते सौख्यम्' जा सकता है। इस एक पद के १०२२४०७ अर्थ किए गए हैं । ग्रन्थ उपलब्ध जैन-संस्कृत-साहित्य का स्रोत विक्रम के नामकरण में उन्होंने पाठलाख से ऊपर की संख्या की तीसरी शती से प्रारम्भ हमा और १८वीं शती तक को शायद इसलिए छोड़ दिया कि भूल से कहीं पुनरुक्त विभिन्न उतार चढ़ावों के साथ प्रबल वेग से बहता हो गया हो तो उसके लिए पहले से ही अवकाश छोड़ रहा । उसके पश्चात् वह ह्रासोन्मुख हो गया। वह दिया जाए । पाठ अक्षरों के पाठ लाख अर्थ करने ह्रास केवल जैन-संस्कृत साहित्य में ही पाया हो ऐसी का सामर्थ्य असाधारण ही कहा जा सकता है। उन्होंने बात नहीं है, अपितु वह सार्वत्रिक ह्रास था; जो कि में अकबर सम्राट की विदन जैनों में भी पाया। फिर भी उसका प्रवाह सर्वथा मण्डली के समक्ष रखा था। सभी विद्वान उनकी इस रुक गया हो-ऐसी बात नहीं है। आज भी अनेक विचित्र प्रतिभा से चमत्कृत हए थे। शब्दों की अनेका- जैन विद्वान विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृत-साहित्य का र्थता के लिए यह ग्रन्थ एक प्रतिमान के रूप में कहा। निर्माण कर रहे हैं। अरावत-पआन्दोलन के प्रवर्तक जा सकता है। प्राचार्य श्री तुलसी और उनके संघ का इस दिशा में ___इसी प्रकार का एक अन्य विचित्र प्रयोग प्राचार्य विशेष परिश्रम चल रहा है। इन चारों दशकों में कुमुदेन्दु द्वारा अपने 'भूवलय' नामक ग्रन्थ में किया है। व्याकरण काव्य, दर्शन निबंध, टीका और स्तोत्र प्रादि वह ग्रन्थ अक्षरों में न होकर अंकों में है। एक से लगा- विषयक अनेकानेक महत्वपूर्ण संस्कृत-ग्रन्थों का निर्माण कर चौसठ तक के अंकों का उसमें विभिन्न अक्षरों के हुआ है । उनमें भिक्षुशब्दानुशासन-महाव्याकरण, स्थान पर प्रयोग हुआ है । वह कोष्ठकों में ही लिखा भिक्षुशब्दानुशासन-वृहद्वृत्ति, भिक्षुशब्दानुशान, लघुवृत्ति, गया है। उसकी सर्वाधिक विशेषता तो यह है कि कालकौमुदी, तुलसी प्रभा प्रादि व्याकरण-ग्रन्थ, भिक्ष उसे यदि सीधी लाइन में पढ़ा जाए तो एक भाषा के चरित, अर्जुनमालाकार, प्रभव प्रबोध, प्रश्र वीणा आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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