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________________ संस्कृत भाषा यशोविजय जी ने भी अपनी नई परिभाषा में इसकी जैन साहित्यकारों ने धर्म-प्रचारार्थ जनभाषा को टीका की । यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा कि अधिकांश महत्व दिया था, परन्तु कालान्तर में उन्होंने विचार- जैन-दार्शनिक-साहित्य का विकास तत्वार्थ सूत्र को केन्द्र प्रसार के क्षेत्र में संस्कृत को भी उतना ही महत्व दिया। में रखकर ही हुआ है । अन्य मतावलम्बी दार्शनिकों के मंतव्यों को समझने तथा उसके पश्चात तो जैन-संस्कृत-साहित्य का एक उनका खंडन कर अपने मंतव्यों को स्थापित करने के स्रोत ही उमड़ पड़ा। प्रत्येक विषय के प्राकार-ग्रन्थों की लिए जैन साहित्यकारों ने इस क्षेत्र में पदन्यास किया मानो होड़-सी लग गई। उन सबका परिचय देना तो और शीघ्र ही प्राकृत भाषा के समान संस्कृत पर भी एक बड़ा सा ग्रन्य बना डालने जैसा कार्य है। यहां अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर लिया। उनमें कुछ की केवल सूचनामात्र ही दी जा सकती है । परम्परा से यह एक जनश्रुति चली आ रही है कि जब भारतीय दर्शनों में नवजागरण हा तब सभी जैनागम द्वादशांगी के अंगभूत चौदह पूर्व संस्कृत भाषा ओर से खंडन-मंडन की प्रवृत्ति बढ़ी। यूक्तियों का में ही रचे गए थे। उनके रचनाकाल के विषय में दो आदान-प्रदान हुआ । इस संघर्ष में पड़कर दार्शनिक प्रवाह विचार-धाराएं हैं-एक विचारधारा के अनुसार भगवान् बहुत पुष्ट हुआ । जैनों को भी अपने विचारों की सुरक्षा महावीर के पूर्व से जो ज्ञान चला आ रहा था उसी को के लिए दर्शन-ग्रन्थ लिखने की तैयारी करनी प्रावश्यक उत्तरवर्ती साहित्य-रचना के समय 'पूर्व' कहा गया । हो गई। उन्होंने अपनी कलम को दर्शनशास्त्र की ओर दुसरी विचार धारा के अनुसार द्वादशांगी से पूर्व ये मोड़ा । बहुत शीघ्र ही अन्य दार्शनिक-ग्रन्थों से टक्कर चौदह शास्त्र रचे गए थे इसलिए इन्हें पूर्व कहा गया। लेने योग्य ग्रन्थों का निर्माण हया । इस क्रम में पहल साधारण बुद्धि वाले इन्हें पढ़ नहीं सकते थे। उनके करने वाले थे प्रचंड तार्किक श्री सिद्धसेन दिवाकर । लिए द्वादशांगी की रचना की गई। वर्तमान में पूर्वज्ञान प्रागमों में विकीर्ण अनेकान्त के बीजों को पल्लवित विछिन्न हो चुका है अतः कहा नहीं जा सकता कि करने तथा जैन-न्याय की परिभाषाओं को व्यवस्थित उन में प्रयुक्त संस्कृत-भाषा वैदिक संस्कृत (प्राचीन संस्कृत) करने का प्रथम प्रयास उनके ग्रन्थ 'न्यायावतार' में ही थी या लौकिक संस्कृत (वर्तमान में प्रचलित प्रविीन मिलता है। उन्होंने जो बत्तीस द्वात्रिशिकाएं रची थी संस्कृत)। उनमें भी उनकी प्रखर ताकिक प्रतिभा का चमत्कार वर्तमान में उपलब्ध जैन संस्कृत-साहित्य में प्राचार्य देखने को मिलता है । समंतभद्र भी इसी कोटि के दार्शनिक गिने जाते है । उनका समय कुछ इतिहास कार उमास्वामि का तत्वार्थ सूत्र प्रथम ग्रन्थ माना। जाता है। इसे मोक्षशास्त्र' भी कहा जाता है। जैन चतुर्थ शताब्दी और कुछ सप्तम शताब्दी बतलाते १ हैं। उनकी रचनाएं देवागमरतोत्र, युक्त्यनुशासन, स्वयंदर्शन का परिचय पाने के लिए आज भी यह ग्रन्य प्रमुख रूप से व्यवहृत होता है। उम स्वामि का समय तीसरी भूस्तोत्र प्रादि हैं । उनके पश्चात् प्रकलंक, विद्यानन्द, शताब्दी माना जाता है। उनका यह ग्रन्थ इतना मान्य हारभद्र, जिनसेन, सिद्धषि, हेमचन्द्र, देवसरि. यशोविजय हा कि विविध समयों में इसकी बीसियों टीकाएं लिखी आदि अनेकानेक दार्शनिकों ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण ग्रन्थ गई । सिद्धसेन, हरिभद्र, अकलंक और विद्यानन्द जैसे लिखे । दार्शनिक-ग्रन्थों में न्यायावतार य धूरंधर विद्वानों ने भी अपने दार्शनिक मंतव्यों की स्थापना प्राप्तमीमांसा, लघीयस्त्रय, अनेकान्त जयपताका, पडदर्शन के लिए तत्वार्थ सूत्र की टीकाएं रची । यहां तक कि समुच्चय, प्राप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा परीक्षामुख. वादमप्रहारहवीं शती में जैन नव्य न्याय के संस्थापक उपाध्याय हार्गव, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्याय कुमुदचन्द्र, स्याद्वादोप १-रत्नाण्ड श्रावकाचार, प्रस्तावना, पृष्ठ १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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