________________
है। ये रचनाएं ऐसे संक्रमण काल को हैं जिसमें कि जैन लेखकों का रुझान संस्कृत की ओर होने लगा था ।
नियुक्तिकार द्वितीय भद्रबाहु ने वि० पांचवी - छठी शती से निम्नोक्त ११ नियुक्तियां लिखी थीं—
१ आवश्यक नियुक्ति २ दशकालिक नियुक्ति
३ उत्तराध्ययननियुक्ति
४ श्रावाराग नियुक्ति
५ सूत्रकृतांग नियुक्ति ६ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति
भाष्यकार थे धर्मसेन गरणी और जिनभद्र क्षमाश्रमण । एक का समय छठी शती और दूसरे का सातवीं शतो था । धर्मसेन ने पंचकल्प भाष्य लिखा था जबकि जिनभद्र ने दशवेकालिक, व्यवहार, वृहत्कल्प, निशीथ और विशेषावश्यक के भाष्य लिखे थे ।
९ श्रावश्यक २ दशवेकालिक
७ वृहत्कल्प नियुक्ति व्यवहार नियुक्ति ६ पिण्ड नियुक्ति
चूरिकार विभिन्न हुए हैं तथा विभिन्न समय में हुए हैं । निम्न श्रागम ग्रन्थों पर चूरियां उपलब्ध हैं
३ नंदी
४ अनुयोगद्वार
५ उत्तराध्ययन
६ आचारांग
७ सूत्रकृतांग
८ निशीथ
६ व्यवहार
१० प्रोघ नियुक्ति ११ ऋषिभाषित नियुक्ति
Jain Education International
१० दशाश्रुतस्कंध
११ वृहत्कल्प
१२ जीवाभिगम
१३ भगवती
१४ महानिशीथ
१५ जीतकल्प
१६ पंचकल्प
१७ नियुक्ति
प्रथम आठ चूरियों के कर्ता जिनदासगणी महत्तर हैं । उनका समय सातवीं शती है । जीतकल्प चूर्णी के कर्ता सिद्धसेन सूरी है । उनका समय बारहवीं शती है । वृहत्कल्प चुरिण के कर्ता प्रलम्ब सूरि हैं। शेष चूरिंणकारों के नाम अभी प्रज्ञात हैं । दशवेकालिक को एक अन्य चूरिंग भी प्राप्त है। उसके कर्त्ता श्रगस्त्य सिंह मुनि हैं ।
१७
श्वेताम्बर श्राचार्यों के समान ही दिगम्बराचार्यों ने भी प्राकृत साहित्य का महत्वपूर्ण - पल्लवन किया है । उनका परम मान्य ग्राद्य ग्रन्थ षट्खंडागम है । यह पुष्पदन्त भूतबलि प्राचार्य द्वारा वि० दूसरी शताब्दी में लिखित है । इसी प्रकार प्राचार्य गुणधर का कषायप्राभृत भी परम मान्य ग्रन्थ है । वि० नवम शताब्दी में प्राचार्य वीरसेन ने षट्खंडागम पर ७२ हजार श्लोक प्रमाण धवला टीका लिखी । उन्होंने कषाय- प्राभृत पर भी टीका लिखनी प्रारम्भ को थो, बोस सहस्र श्लोकप्रमाण लिखी भी थी पर वे उसे पूर्ण नहीं कर सके | बीच में ही दिवंगत हो गए। उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने उसे पूर्ण किया । वह ६० श्लोक प्रमाण है और जयघवला नाम से प्रसिद्ध है । इसी प्रकार वि० दूसरी शती में कुरंदकुदाचार्य के प्रवचनसार, समयसार प्रौर पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थ अध्यात्म का नया स्रोत बहाने वाले हुए हैं । वि० दशमी शती आचार्य नेमीचन्द्र रचित गोम्मटसार और लब्धिसार ग्रन्थ भी बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं ।
।
उपर्युक्त आगम साहित्य के अतिरिक्त जैनाचार्यों प्राकृत में प्रचुर मात्रा में काव्य तथा कथा - साहित्य भी लिखा है । पादलिप्स को तरंगवई, विमलसूरि का पउमचरिय, संघदासगणी की वसुदेवहिंड़ी, हरिभद्र की समराइच्चकहा आदि एतद् विषयक महत्वपूर्ण कृतियां हैं ।
इनके अतिरिक्त व्याकरण, निमित्त, ज्योतिष, सामुद्रिक, आयुर्वेद आदि के विषयों पर भी प्राकृत भाषा में प्रचुर मात्रा में लिखा गया है । "
साधारणतया प्राकृत साहित्य का काल विभाजन तीन युगों में किया जाता है (१) ईस्वी पूर्व ५०० से १०० ईस्वी तक प्राचीन प्राकृतों का युग, (२) १०० ईस्वी से ६०० ईस्वी तक अन्तरकालीन महाराष्ट्री, शोरसेनी प्रादि साहित्यिक प्राकृतों का युग और (३) ६०० ईस्वी से १२०० ईस्वी तक प्रपभ्रंश युग कहा जाता है | अपभ्रंश के विषय में आगे पृथक रूप से बतलाया जाएगा।
१ - विशेष जानकारी के लिए देखिये 'पाइए भाषाओ ने साहित्य'
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org