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________________ नाम के पीछे दूसरा कारण यह भी बतलाया जाता है मूल का सेचन जैसा जैन-साहित्यकारों ने किया है वैसा कि यह प्राधे मगध देश में बोली जाती थी। और किसी ने किया भी नहीं होगा। अपने साहित्य के प्रारम्भकाल से ही जैनों का उपयुक्त भाषाओं में भी जो साहित्य लिखा गया दृष्टिकोण जनभाषाओं को महत्व देने का रहा, फिर है, विषय की दृष्टि से वह केवल जैन--धर्म विषयक ही भी उन्होंने संस्कृत की कभी कोई अवज्ञा नहीं की। नहीं; अपितु भारतीय वाड्मय के हर अंग को पुष्ट संस्कृत को नीचा गिरा देने की भावना नहीं, किन्तु करने वाला है। अध्यात्म, योग, तत्व निरूपरण और प्राकृत को ऊंचा उठा देने की भावना ही उनके अन्तरंग दर्शन जैसे गम्भीर साहित्य के समान ही काव्य, कथा में काम करती रही थी। संस्कृत को देवभाषा और और नाटक प्रादि ललित-साहित्य भी प्रचुर मात्रा में प्राकृत को ग्राम्यभाषा बतलाने वालों को जैनों का उत्तर लिखा गया है। इनके अतिरिक्त इतिहास, पुराण, था-सक्कयं पागयं चेवे, पसत्थं इसि भासियं २ अर्थात नीति, राजनीति, अर्थशास्त्र, व्याकरण, कोश, छंद, संस्कृत और प्राकृत दोनों ही ऋषि भाषित हैं अतः । अलंकार, भूगोल, गणित, ज्योतिष, प्रायुर्वेद ग्रादि दोनों ही महान् हैं। भाषा विषयक इस उदार दृष्टि- विषयों पर भी जैन साहित्यकारों ने अधिकार पूर्ण कोण के कारण ही वे अनेक भाषाओं की समान रूप से साहित्य लिखा है। इतना ही नहीं उनकी लेखनी सेवा कर सके । इस प्रवृत्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंत्र, तंत्र, संगीत और रत्न-परीक्षा जैसे विषयों पर एक सफल यह हुआ कि भारत के विभिन्न प्रदेशों और भी चली है। इससे जैन-साहित्यकारों के व्यापक विभिन्न कालों की भाषाए ५००-६०० ईस्वी पूर्व से दृष्टिकोण तथा सर्वाङ्गीण ज्ञान का परिचय सहज ही लगाकर अाज तक के जैन साहित्य में अपने-अपने प्राप्त किया जा सकता है । वास्तविक रूप में सुरक्षित रह गई। प्राकृत भाषा भारत की अनेक लोकभाषामों को समृद्ध बनाने जैनों का प्राचीनतम पागम-साहित्य प्राकृत भाषा तथा अनेकों को साहित्यिक रूप प्रदान करने का श्रेय में है। भगवान् महावीर की उपदेशात्मक प्रकीर्ण वाणी जैन श्रमणों को ही है। ऐसी भाषामों में भारत के पार का गणधरों ने जब सूत्ररूप में गुफन किया, तब वह उत्तर और पश्चिम प्रदेशों में प्रचलित शौरसेनी, पूर्व में गरिणपिटक नाम से प्रसिद्ध हुअा। उसके मुख्य बारह अर्धमागधी, दक्षिण में कन्नड़ तथा तमिल आदि को भाग-ग्रंग थे अतः द्वादशांगी भी उसे कहा गया। वे गिनाया जा सकता है। बारहें अंग ये हैं-१ आचारांग २ सूत्रकृतांग, ३ प्राचीन भारतीय भाषानों के समान ही हिन्दी, स्थानांग, ४ समवायांग, ५ भगवती ६ ज्ञातृ-धर्म कथा, गुजराती, राजस्थानी, मराठी आदि अर्वाचीन भाषानों ७ उपासक दशांग, ८ अन्तकृद्दशा, ६ अनुत्तरोपपातिक की भी जैन साहित्यकारों ने उतनी ही लगन से सेवा दशा, १० प्रश्न व्याकरण, ११ विपाक, १२ दृष्टिबाद । की है। उन सभी में यहां तक कि फारसी में भी जैन स्थविर ने उस साहित्य का पल्लवन किया। सहस्रों माहित्य उपलब्ध है। उदाहरण स्वरूप फारसी में प्रकरण-ग्रन्व बनें। उसके पश्चात् आगामों के व्याख्या जिनप्रभ रचित 'ऋषभ स्तोत्र' तथा विक्रमसिंह रचित ग्रन्थ लिखे जाने लगे। वे नियुक्ति भाष्य और चूर्णी 'फारसी भाषानुशासन' आदि ग्रन्थ गिनाए जा सकते के रूप में प्राकृत की विशालकाय साहित्य-राशि हैं। हैं। इस भाषानुशासन में १ हजार फारसी शब्दों के नियुक्ति और भाष्य पद्यात्मक हैं जबकि चूणियां संस्कत पर्याय दिए गए हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी के तो गद्यात्मक , चूणियों की भाषा संस्कृत-मिश्रित प्राक्त १-"मगदद्ध विसय मासा णिबद्ध अद्धमागहं, अद्वारस देसी भासा गिभयं बा अद्धमागहं (निशीथ चूर्णी) २-अनुयोग द्वार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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