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________________ अवधि को और अधिक पीछे को पोर हटालेजाना संभव प्रबल प्रतिद्वन्दी धर्म के रूप में तो उल्लेख किया गया है होता तो वैसा करने में भी विशेष संकोच न होता । १६वीं किन्तु इस बात का कहीं कोई संकेत नहीं हैं कि वह एक शती के प्राच्यविदों द्वारा पुरस्कृत एवं कार्यान्वित यह नवस्थापित समुदाय था। इसके विपरीत उनके उल्लेख खोज शोध पद्धति ही प्राज के युग की सर्वमान्य वैज्ञानिक इस प्रकार के हैं कि जिनसे यह सूचित होता है कि बुद्ध अनुसन्धान पद्वति मानी जाती है इस परीक्षा प्रधान के समय में निर्ग्रन्थों (जैनों) का सम्प्रदाय पर्याप्त प्राचीन बौद्धिक युग में प्रत्येक तथ्य को परीक्षा द्वारा प्रमाणित हो चुका था-वह बौद्ध धर्म की स्थापना के बहुत पूर्व करके ही मान्य किया जाता है। इसी पद्धति के अवलम्बन से प्राचीन था-बौद्ध साहित्य से यह भी प्रतीत होता हैं द्वारा गत डेढसौ वर्षों में जैनधर्म की ऐतिहासिकता कि बोधिप्राप्त करने के पूर्व गौतमबुद्ध ने सत्यान्वेषण के सातवीं शताब्दी ईस्वी में बौद्धधर्म की शाखा के रूप में लिये जो विभिन्न प्रयोग किये थे उनमें एक जैन मुनि प्रगट होने वाले एक छोटे से गौण सम्प्रदाय की स्थिति के रूप में रहकर जैन विधि से तपश्चरण प्रादि करना से शनै: शनै: उठकर कम से कम वैदिक धर्म जितने भी था। इस तथ्य का समर्थन उस जैन अनुश्रुति से भी प्राचीन एवं सुसमृद्ध संस्कृति से समन्वित एक महत्त्वपूर्ण होता है जिसके अनुसार बौद्ध धर्म की स्थापना एक जैन भारतीय धर्म की स्थिति को प्राप्त होगई है। प्राधुनिक साधु द्वारा हुई थी। दोनों धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन युग में जैनधर्म सम्बन्धी ज्ञान के विकास की तथा से यह बात भी स्पष्ट हो चुकी है कि बौद्धधर्म पर जैन परिणामस्वरूप उसकी ऐतिहासिकता एवं प्राचीनता के धर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था और बुद्ध ने अनेक बातें निर्णय एक अपनी कहानी हैं जो रोचक होने के साथ ही जैनधर्म से लेकर अपने धर्म में समाविष्ट की थी । साथ ज्ञानप्रद भी हैं । इस समय उस में न जाकर जैन बौद्ध साहित्य में वैशाली के लिच्छवियों का परम्परा की आपेक्षिक प्राचीनता के कतिपय प्रमुख प्रमाण निर्ग्रन्थों के प्राचीन चैत्यालयों के पूजक होने के उल्लेख प्रस्तुत किये जाते हैं। तथा तीर्थङ्कर पार्श्व के चार्याम धर्म के उल्लेख से जैन परम्परा के चौबीसवें एवं अन्तिम तीर्थङ्कर स्पष्ट है कि प्राद्य बौद्धलोग तेइसवें तीर्थङ्कर भगवान निर्ग्रन्य ज्ञातृपुत्र श्रमण भगवान वर्द्धमान महावीर का पार्श्वनाथ के उपदेशों से सम्बन्धित जैनों की महाबीर निर्वाण सन् ईस्वीपूर्व ५२७ ( विक्रमपूर्व ४७० और पूर्व परम्परा से भी अवगत थे । बौद्ध धम्मपद में प्रथम शकशालिवाहन पूर्व ६०५ ) में हना था और वे बौद्वधर्म तीर्थङ्कर ऋषभ और अन्तिम तीर्थंकर महावीर के के प्रवर्तक एवं संस्थापक शाक्य मुनि तथागत गोतमबुद्ध नामोल्लेख हैं और बौद्वाचार्य प्रार्यदेव ने अपने षटशास्त्र के. जिनकी कि परिनिर्वाण तिथि ईस्वीपूर्व ४८३ प्रायः में ऋषभदेव को ही जैनधर्म का मूल प्रवर्तक बताया है। मान्य की जाती है, ज्येष्ठ समकालीन थे । बौद्वों के पालित्रिपिटक नामक प्राचीनतम धर्म ग्रन्थों में भ० महा महावीर और बुद्ध के प्रायः समकालीन मक्खलि गोशाल ने, जो कि ग्राजीविक नामक एक अन्य श्रमण वीर का उल्लेख 'निगंठनातपुत्त' (निर्ग्रन्य ज्ञातृपुत्र) नाम सम्प्रदाय का प्रवर्तक था, समस्त मानव जाति को छः से हुआ हैं और उन्हें श्रमणपरम्परा में उत्पन्न उस काल समूहों में विभक्त किया है जिनमें से तीसरा समुदाय के छः तीर्थकों ( सर्व महान धर्म मार्ग प्रदर्शकों) में निग्रन्थों का बताया है। इस पर विद्वानों का कहना है परिगणित किया गया है । बौद्धग्रन्थों के भ० महावीर कि मानव जाति के ऐसे मौलिक विभाजन में किसी एवं जैनधर्म सम्बन्धी उल्लेखों से डा० हर्मन जेकोबी नवीन, गौरण या थोड़े समय से प्रचलित सम्प्रदाय को ग्रादि प्रकाण्ड प्राच्यविदों ने यह फलित निकाला है कि 'इस विषय में कोई सन्देह नहीं हैं कि महावीर और इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सकता था। बुद्ध एक दूसरे से स्वतन्त्र किन्तु परस्पर प्रायः समकालीन इसके अतिरिक्त जैसा कि डा० जैकोबी का कहना धर्मोपदेष्टा थे । प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में जैन धर्म का एक है, जैनों जैसे 'एक बहुसंख्यक सम्प्रदाय की लिपिबद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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