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________________ १३ परम्परा अनुश्रुति को निरर्थक एवं असत्य पृञ्ज मानकर प्राचीन भारतीय अनुश्रुतियों के अनुसार महाभारत अस्वीकार करने के लिये भी तो कोई उचित कारण होना में वरिणत घटनाओं के पूर्व रामायण में वरिणत घटनाओं चाहिये । वे समस्त तथ्य एवं घटनाएं जो जैनों की का युग था। इस महाकाव्य के नायक अयोध्या के अत्यन्त प्राचीनता की सूचक हैं प्राचीन जैन ग्रन्थों में भरी इश्वाकुवंशी (अथवा सूर्यवंशी) भ० राम का जैन परम्परा पड़ी हैं और ऐसी वास्तविकता के साथ लिखी गई हैं में भी हिन्दू परम्रा जैसा ही आदरणीय स्थान है । वे कि उन्हें तब तक अस्वीकार नहीं किया जासकता बीसवें जैन तीर्थङ्कर भूनिसूवृतनाथ के तीर्थ में उत्पन्न जब तक कि उन तकों एवं यक्तियों से अधिक सबल हए थे । उसके भी पूर्व काल की राजा व तु और प्रमाण प्रस्तुत न किये जाय जिन्हें कि जैन धर्म की वेन सम्बन्धी पौराणिक कथाएं जैन अनुश्रुतियों से प्राचीनता में शंका करने वाले विद्वान बहुधा प्रस्तुत समर्थित हैं। करते हैं। वास्तव में 'भारत वर्ष का प्राचीन इतिहास, जैसा वस्ततः भ० महावीर के निर्वाण से अढाई सौ वर्ष कि प्रो. जयचन्द्र विद्यालङ्कार का कहना है, "उतना ही पूर्व (ई० पू० ७७७ में) एक सौ वर्ष की प्रायु में सम्मेद जैन है जितना कि वह अपने आपको वेदों का अनुयायी शिखर (बिहार राज्य के हजारीबाग जिले में स्थित कहने वालों का है । जैनों की मान्यता के अनुसार महापारसनाथ पर्वत) से निर्वाण प्राप्त करने वाले २३ वें वीर के पूर्व २३ अन्य तीर्थकर हो चुके थे । इस विश्वास तीर्थ धर भ० पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता में अब को सर्वथा भ्रमपूर्ण और निराधार मानलेना तथा समस्त प्रायः किसी पौर्वात्य या पाश्चात्य विद्वान को सन्देह पूर्व तीर्थङ्करों को काल्पनिक और अनै तिहासिक मान नहीं है। बैठना न तो न्याय संगत ही है और न उचित ही है। इतना ही नहीं, जैसा कि भारत के वर्तमान राष्ट्र- इस मान्यता में विश्वास न करने योग्य बात कुछ भी पति एवं सुप्रसिद्ध दार्शनिक डा० राधाकृष्णन का कहना नहा है ।' है 'इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान जैनों की असन्दिग्ध मान्यता कि प्रथम तीर्थ डर या पार्श्वनाथ के भी बहत पहिले से प्रचलित था ।' डा० भ० वृषभदेव (आदिनाथ) ने ही सर्वप्रथम धर्म का प्रवर्तन नगेन्द्रनाथ वस का मत है कि 'भ. पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती किया एवं कर्म युग का सूत्रपात किया, उन्हीं ऋषभदेव बाईसवें जैन तीर्थङ्कर नेमिनाथ भ० कृष्ण के ताऊजात को पुराणों में विष्णु का एक प्रारंभिक अवतार तथा भाई थे । यदि हम कृष्ण की ऐतिहासिकता स्वीकार आहेत (जैन) मत का प्रवर्तक मानना और ऋग्वेदादि करते हैं तो कोई कारण नहीं कि हम उनके समकालीन में उनका नामोल्लेख होना तथा प्रागार्य एवं प्राग्वैदिक २२ वें तीर्थ हर भ० नेमिनाथ को एक वास्तविक एवं सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों में उन्हीं वृषभ लांछन ऐतिहासिक व्यक्ति मान्य न करें ।' प्रो० करवे. कर्नल योगी ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ ग्राकृतियां टाड, मेजर फलाङ्क, डा० प्राणनाथ विद्यालङ्कार, डा० मुद्राङ्कित पाया जाना, इसके अतिरिक्त जीववाद प्रादि हरिसत्य भट्टाचार्य आदि अनेक विद्वान भ० नेमिनाथ की सम्बन्धी जैनों की अत्यन्त मौलिक, आदिमयुगीन तात्त्विक ऐतिहासिकता को स्वीकार करते हैं। यजुर्वेद आदि में एवं दार्शनिक मान्यताएं इस धर्म को न केवल एक भी तीर्थकर नेमिनाथ अपरनाम अरिष्ट नेमि का उल्लेख सर्वथा स्वतन्त्र एवं शुद्ध भारतीय धार्मिक परम्परा सिद्ध पाया जाता है। और डा० काशीप्रसाद जायसवाल आदि करती हैं वरन् उसे प्राग्वैदिक कालीन भी सुचित विद्वानों का मत है कि अथर्ववेद में उल्लेखित प्रात्य वह करती हैं। व्रात्यक्षत्रिय या क्षोभ बन्धु थे जिनकी निन्दा अवैदिक अस्तु, उपरोक्त प्रमाण बाहुल्य के आधार पर होने के कारण वैदिक साहित्य में की गई है और जो अनेक प्रख्यात विद्वान जैन परम्परा की प्रापेक्षिक प्राचीवस्तुतः जैनधर्म के अनुयायी थे। नता में सन्देह नहीं करते । यदि कुछ विद्वानों के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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