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________________ जैन धर्म की प्राचीनता • डा० ज्योतिप्रसाद जैन . एम.ए., एल.एल.बी., पी.एच.डी., लखनऊ बौद्ध साहित्य में वैशाली के लिच्छवियों का निर्ग्रन्थों के प्राचीन चैत्यालयों के पूजक होने के उल्लेख तथा तीर्थङ्कर पार्श्व के चातुर्याम धर्म के उल्लेख से स्पष्ट है कि प्राद्य बौद्ध लोग तेइसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ के उपदेशों से सम्बन्धित जैनों की महावीर पूर्व परम्परा से भी अवगत थे। बौद्ध धम्मपद में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभ और अंतिम तीर्थङ्कर महावीर के नामोल्लेख हैं और बौद्धा चार्य आर्यदेव ने अपने षट्शास्त्र में ऋषभदेव को ही जैनधर्म का मूल प्रवर्तक बताया है। किसी धर्म की श्रेष्ठता उसकी प्राचीनतम अथवा बौद्ध अनुश्रुतियां ही नहीं ब्राह्मणीय (हिन्दू ) अनुश्रुतियां अर्वाचीनता पर अनिवार्यत: निर्भर नहीं होती, भी अत्यन्त प्राचीनकाल से जैन धर्म की स्वतन्त्र सत्ता किन्तु यदि कोई धार्मिक परम्परा प्राचीन होने के साथ स्वीकार करती चली आती हैं। इस विषय में भारतवर्ष ही साथ सुदीर्घ काल पर्यन्त सजीव, सक्रिय एवं प्रगति- के पुरातन प्राचार्यों एवं मनीषियों में से किसी ने कभी वान बनी रहती है और लोक की उन्नति, नैतिक वृद्धि कोई विवाद ही नहीं उठाया । अतएवं जैन धर्म की तथा सांस्कृतिक समृद्धि में प्रबल प्रेरक एवं सहायक सिद्ध प्राचीनता सिद्ध करने की कोई आवश्यकता न थी । हई होती हैं तो उसकी वह प्राचीनता जितनी अधिक किन्तु अाधुनिक प्राच्यविदों एवं इतिहासकारों ने भारतीय होती हैं वह उतनी ही अधिक उक्त धर्म के स्थायी इतिहास की अन्य अनेक बातों की भांति उसे भी एक महत्व एवं उसमें निहित सर्वकालीन एवं सार्वभौमिक समस्या बना दिया। तत्त्वों की सूचक होती है। इसके अतिरिक्त, किसी भी ___ अठारहवीं शती के अन्तिम पाद में यूरोपीय प्राच्यसंस्कृति के उद्भव एवं विकास का सम्यक् ज्ञान प्राप्त विदों ने जब भारतीय इतिहास, समाज, धर्म, संस्कृति, करने तथा उसकी देनों का उचित मूल्याङ्कन करने के साहित्य, कला आदि का अध्ययन प्रारंभ किया तो लिये भी उसकी आधारभूत धार्मिक परम्परा की प्राचीनता उन्होंने उस प्राधुनिक ऐतिहासिक पद्धति को अपनाया का अन्वेषण प्रावश्यक हो जाता हैं। जिसमें वर्तमान को स्थिर बिन्दु मानकर प्रत्येक वस्तु के यह प्रश्न हो सकता है कि जैनधर्म की प्राचीनता इतिहास को पीछे की ओर उसके उद्गम स्थान या उदय में शंका करने की अथवा उसे एक अत्यन्त प्राचीन धार्मिक काल तक खोजते चला जाना था। जो तथ्य प्रमाणसिद्ध परम्परा सिद्ध करने की आवश्यकता ही क्यों हई ? स्वयं होते जाते और अतीत में जितनी दूर तक निश्चित रूप जैनों की परम्परा अनुश्रुति तो सुदूर अतीत में जब से से लेजाते प्रतीत होते वहीं उनका अथवा उनकी ऐतिहाभी वह मिलनी प्रारंभ होती है निर्विवाद एवं सहजरूप सिकता का प्रादिकाल निश्चित कर दिया जाता । में उसे सर्वप्राचीन धर्म मानती ही चली आती है और कालान्तर में नव उपलब्ध प्रमारणों के प्रकाश में उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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