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________________ नानृतं बदेन्न मांसमश्नोयात् न स्त्रियमुपेयात् ।। मधुरवाणी बोलनी चाहिए। जीवों के प्रति प्रमाद तैत्तरीय सं० २,५,५,३२ न हो। देवताओं ने यज्ञ से श्रम से, तपस्या से और ये या इसी प्रकार के बहत से मन्त्र इस तथ्य की आहुतिया आहतियों से स्वर्ग लोक को प्राप्त किया। स्पष्टतः यहां पुष्टि कर सकते हैं कि ऋत, सत्य, अहिंसा और सदाचार जिन चार मार्गों का निर्देश है, उनमें तप भी है । ऐतरेय को वैदिक संहिता काल में पूर्ण मान्यता प्राप्त थी। तो ऋग्वेद का ब्राह्मण है, पर उससे अधिक परवर्ती अथर्ववेद के गोपथ ब्राह्मण में जबपुराण, वैदिक आख्यानों एवं संकेतों के वद्धित, पल्लवित और पुष्पित, स्वरूप हैं। पुराणों की भावना, ब्राह्मणो नैव गायेन्न नृत्येत्' । पूर्वार्ध २।२१ ।। वैदिक भावना के मार्ग का ही अनुसरण करती है । जैसा निर्देश मिलता है, तब उस जैन अनुश्र ति श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव का चरित विस्तृत रूप में की पुष्टि ही होती है, जिसके अनुसार ऋषभदेव के पुत्र प्रस्तुत किया गया है और उन्हें पुण्यश्लोक माना भरत ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वणों में से व्रत और गया है चरित्र धारण करने वाले व्यक्तियों को ब्राह्मण बनाया । _ 'इति ह स्म सकल वेद लोक देव ब्राह्मण गवां उनके शील और सदाचार के कुछ निश्चित नियम परमगुरो भगवतः निर्धारित किए गये। ब्राह्मण काल में ब्राह्मणों के ऋषभाख्यस्य विशुद्ध चरितमीरितं पुसो समस्त । अभ्युदय का श्रेय उनके शील और सदाचार को ही दिया दश्चरितानां हरणम्' जा सकता है। इसके व्यवस्थापक भरत थे । गृहस्थ ऋषभदेव का चरित्र विष्णुपुराण में भी वरिणत है जीवन का नियन्त्रण ब्राह्मणों के हाथ पाया और ब्राह्मणों तथा गृहस्थ जीवन दोनों का ही नियन्त्रण, और दोनों ही स्थानों पर उन्हें चरम योगिन् और गृह उन गृह त्यागी श्रमणों और तपोनिरत सन्यासियों के त्यागी कहा गया है । वे संन्यस्त हैं श्रमण हैं । श्रमण हाथ पाया, जो समाज से यत्किचिन लेकर प्रचुर संस्कृति को अवैदिक या प्राग्वैदिक सिद्ध करने की भी देते थे । इसी द्वितीय वर्ग के प्रतीक ऋषभ देव थे । यदि कोशिश होती है। वेद, लोक, देव और ब्राह्मण का इस तथ्य को स्वीकार कर लिया जाय, तो पागे का गुरुत्व ऋषभदेव को कदापि न प्राप्त होता यदि वे सारा इतिहास अपने पाप स्पष्ट हो जाता है, तीर्थ करों अवैदिक होते । अतः यह स्वीकार किया जा सकता है की देन सामने आ जाती है। जब जब गृहस्थ जीवन कि वैदिक साहित्य में तप और सदाचार को कुछ मन्त्रों और उसके नियन्त्रकों में विकृतियां पाई, तीर्थकरों ने में जो प्रमुखता प्राप्त हुई है, वह ऋषभदेव की साधना उन्हें सचेत, सजग और सतर्क किया। उनके चिन्तन, का ही फल है। ध्यान तप और समाधि में व्यक्ति निष्ठता ही नहीं, परवर्ती अथर्ववेद और ब्राह्मण अन्यों में भी यह समाज निष्ठता भी थी। परम्परा उत्तरोत्तर बल पकड़ती गई है । संहितागत भारण्यक और उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थों के ही भाग मन्त्रों की अपेक्षा, ब्राह्मण ग्रन्थों में अहिंसा तप और माने जाते हैं। उपनिषद् काल की जो भी सांस्कृतिक सदाचार के निर्देशक उद्धरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो विचारधारा थी, उसी के ये तीन रूप हमारे सामने झाले जाते हैं। हैं। यज्ञ एवं कर्मकाण्ड से सम्पन्न ब्राह्मण प्रधान गृहग्य मधुमती वाचमुदेयम् । अथर्व ७१५२१८ जीवन की विचारधारा, अरण्य में तपोनिष्ठ, ज्ञान और मा जीवेभ्यः प्रमदः । अथर्व ८।१७। चिन्तन को प्रमुखता देने वाले आरण्यक और उपनिषदों देवावै यज्ञेन, श्रमेण, तपसाऽऽहुतिभि : के मनीषियों की विचारधारा, तथा वैखानस और श्रमरण स्वर्गलोकमायन् ।। ऐतरेय ३।४२। जीवन की विचारधारा । उपनिषदों के चिन्तन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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