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________________ जिसमें अनेक संस्कृति - सरितायें आकर विलीन हो गई हैं। भारत में आज जो कुछ है उसको रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। जोट ने भारतीय समाज की इसलिए प्रशंसा की है कि उसमें विभिन्न जातियों, यादों और विचारों तथा धर्मों को एक ही सांधे में ढाल लेने की अद्भुत क्षमता रही है । भारतीय समाज की बहुविधता, उसकी संस्कृति की बहुमुखता सदा विश्व समाज और विश्व संस्कृति का प्रतीक रही है । आज भी वह विश्व के परस्पर विरोधी विचारों के लिए आदर्श बन सकती है । ऐसी महान भारतीय संस्कृति के स्वरूप निर्माण में, उसके निखारने में जैन संस्कृति का महान् योग रहा है। पाज की भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति स्वयं समाहित है, ग्रतः उसके योगदान के लिए तो प्रतीत के इतिहास पर ही दृष्टिपात करना होगा । " जैन धर्म और उसकी प्रमुख विचारधारा प्राग्वैदिक मानी जाने लगी है। इतिहासकारों को दृष्टि मोहेनजोदरो में प्राप्त चित्रों की मुद्रात्रों की ओर गई है और वे उसमें जैन - भावना का दर्शन करने लगे हैं। खड़े मूर्तिचित्रों में कायोत्सर्ग की छाया दोख पड़ी है। बैल, हाथी, घोड़ा आदि प्रर्तक चिन्हों पर चैत्यवृक्षों के अंकन से भी इसकी पुष्टि होती है । जो तर्क या तथ्य जैन पक्ष में प्रस्तुत किए जाते हैं, वे हो शैव या रुद्र- पक्ष में । ऋषभ देव और वृषभ - देव (शिव) को एकता पर खोज का कार्य बहुत कम हुआ है। योग और तप की प्रमुखता के कारण आरम्भ में दोनों एक ही रहे हों यह तथ्य संभावना से परे नहीं है। जैन धनुश्रुतियों के अनुसार चौदह मनु हुए हैं। अन्तिम मनु नाभिराज थे उन्हीं के पुत्र ऋषभदेव ने अहिंसा धौर अनेकान्तवाद का प्रवर्तन किया। लिपि की देन इन्हीं की मानी जाती है । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस विवर्ग की रचना उन्होने ही की उनके पुत्र भर ने हो तीनों वर्णों में से व्रत और चरित्र धारण करने वाले व्यक्तियों को ग्राहारण बनाया। इस अनुभूति में सत्य का पर्याप्त अंश है। यह तो निश्चित है कि वैदिक संहिताओं के काल में, वर्णव्यवस्था का परवर्ती स्वरूप I Jain Education International नहीं था । "ब्राह्मणस्य मुखमासीत् बाहू राजन्य : " जैसे एकाध मन्त्र बाद के सिद्ध हो जाते हैं । वैदिक जीवन की जैसी कल्पना ऐतिहासिकों और अध्येताओं ने की है। उसके अनुसार उस जीवन में उल्लास था, स्वच्छन्दता थी; परलोक के भय से मुक्त वे इह लोक के भौतिक सुखों के अर्जन में अधिक संलग्न थे। स्वर्ग के लिए भी त्याग करते थे पर स्वर्गीय देवताओं में ऐहिक सुख की अधिक याचना करते थे। यहीं के शत्रुयों का संहार चाहते थे । वे भावुक थे, अतः प्रकृति के प्रत्येक उपकरण में देवत्व की प्रतिष्ठा कर लेते थे। जीवन का प्रत्येक कर्म यश था वे मुबी थे। इस जीवन मे - और शरीर कष्ट देने वाले विविध व्रतों का मेल बिठाना संभव नहीं है । इसका अर्थ यही है कि वैदिक संहिताकाल में ही दोनों विचारधारायें समान रूप से प्रवाहित हो रही थीं और सत्य के साथ तप का उल्लेख करने वाले अनेक मन्त्र उपलब्ध हो जाते हैं-ऋतं च सत्यं चाभिधातपसो ऽभ्यजायत जैसे मन्त्रों की कमी नहीं है। यज्ञ घोर तप मार्ग में निरत मानव सृष्टि के बहुविध रूपों के साथ प्रकृति-सृष्टि के अनेक रूपों को देख कर यदि कोई वैदिक ऋषि- इयं विसृष्टि र्यत श्राबभूव यदि वा दधे यदिवा न । योश्याध्यक्षः परमे व्योमन्सो अंग वेद यदि वा न वेद । । नासदीय सूक्त ७ ॥ कह उठता है कि ये नाना सृष्टियां कहां से हुई ? किसने की, किसने नहीं की? परमधाम में रहनेवाला इसका अध्यक्ष भी यह जानता है या नहीं ? यो आश्चर्य नहीं होना चाहिए । ऋषभ देव प्रौर अरिष्ट नेमि दोनों हो वैदिक ऋषि हैं और उन दोनों की विचारधारा - तपोमार्ग ने वैदिक संहिताओं के मन्त्रों को भी प्रभावित किया है । सदाचार और तप एवं हिंसा की जो त्रिवेणी ऋषभ देव ने प्रवाहित की संहिता क्षेत्र में कम है पर उसकी धारा का प्रभाव नहीं । ऋतस्य पत्यों न तरन्ति दुष्कृतः । ६४७३।६ अहमतात्सत्यमुपैमि ॥ यजुः ११५ ॥ ऋतस्य यथा प्रेत । यजुः ७१४५ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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