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भारतीय संस्कृति को जैन संस्कृति का योगदान
• डा० छविनाथ त्रिपाठी हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
ऋषिभदेव, अरिष्ट नेमि, पार्श्वनाथ और महावीर द्वारा प्रवर्तित प्राध्यात्मिक परम्परा त्याग और तप को प्रमुखता देती रही, इसीलिए वे सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए आदर के पात्र रहे,... ........ .......सन्यास, साधना, कृच्छतप, निस्पृहता और वैराग्य के प्रतिष्ठापक इन जैन तीर्थङ्करों ने समाज को संतुलित रखने का महान् प्रयत्न किया। वृहस्पति और चार्वाक हेय और निंद्य माने गए, परन्तु जैन तीर्थङ्कर सदाचार के कारण ही समाज के आदरणीय बने ।
सार-भर में जो कुछ सर्वोत्तम है, उससे परिचित सातत्य और परिवर्तन की शक्तियों में निरन्तर संघर्ष
होना ही संस्कृति से परिचित होना है । सर्वोत्तम चलता रहता है। परिवर्तन की गति शक्तिशालिनी होती क्या है ? इसका निर्णय करना किसी के लिए भी संभव है, वह विजयिनी भी होती है, परन्तु सातत्य की शक्ति नहीं है। देश, काल और परिस्थिति भेद से एक ही अपनी छाप, अपनी मुहर, उस पर ठोक देती है जिसे वस्तु, एक ही विचार और एक ही सिद्धान्त उत्तम, सर्वथा मिटा पाना परिवर्तन के लिए भी संभव नहीं मध्यम और अधम की श्रेणी में बिठा दिये जाते हैं। हो पाता। संस्कृति के स्थायी तत्त्व इन्हीं से निर्मित मानसिक शक्तियों और उनके प्रतिस्फलन को अभिव्यक्त होते हैं । करने वाली संस्कृति भी देश-काल और परिस्थिति से भारत में आज अनेक जातियां बसती हैं। इसकी परे, उसके प्रभाव से रहित, कोई अलिप्त वस्तु नहीं कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के है। अतः कालक्रम से आ पड़ने वाले मानव-मन पर; समस्त मानव-मनों और विचारों पर उसी की छाप है. उसके प्राचार और उसकी रुचियों पर विकृति की मलि- उसी का आधिपत्य है। आज के इस भारत की संस्कृति नता को परिष्कृत या संस्कृत करने वाली शक्ति का न वैदिक है न हिन्दू, न जैन है न बौद्ध, न यवन है न नाम ही संस्कृति है। संस्कृति का स्वरूप परिवर्तित होता मुसलिम, वह पूर्ण रूप से प्रांग्ल भी नहीं है। इस पर रहता है। सभ्यता के जड़ आवरण में संस्कृति की इन सभी की छाप है, केवल इन्हीं की नहीं अपितु उन चेतना आबद्ध होकर भी अपनी दीप्ति से, अपना महत्त्व जातियों की भी, जो भारतीय जनसागर में पूर्णतः स्थापित कर लेती है । बाह्य-परिवेष्ठन की भिन्नता विलीन हो गई हैं । ईरानी, पार्थियन, वैक्ट्रियन, सीथियन संस्कृति के बाह्य रूप को भी परिवर्तित कर देती है, हूण, तुर्क, यहूदी अादि समय समय पर आये, भारतीय फिर भी उसके मूल तत्वों में से कुछ ऐसे शाश्वत और समाज में घुल मिल गये, अपनी विशेषताओं और संस्कृतिचिरन्तन होते हैं जिनके आधार पर न केवल उसे जन्य विचारों और परम्पराओं की भेंट इस भारतीय पहचाना जा सकता है, अपितु उसके अतीत का-इतिहास संस्कृति को देकर । सुप्रसिद्ध इतिहासकार डाडवेल के का भी अन्वेषरण कर सकना संभव हो जाता है। शब्दों में भारतीय-संस्कृति उस महासमुद्र के समान है.
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