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________________ 22 हम यह समझने का प्रयत्न करें कि महावीर कोई दिया क्योंकि उन्होंने अपने गहरे अनुभव से यह जान व्यक्ति नहीं हैं। वह तो एक सिद्धान्त है, अहिंसा और लिया था कि वह भी जगत की एक नाम अनेकान्त की बहती हुई विचार धारा है, मानव की मात्र है। लोकोत्तर जीवन पद्धति हैं । बुद्ध और ईसा, पैथा गोरस त्रिकालाबाधित सत्य को प्रकट करने वाली उनकी पौर गांधी ने भी इसी जीवन पद्धति पर जोर दिया है। दिव्य वाणी में मानव की सभी समस्याओं का हल था। इन सब ने प्रेम, सहानुभूति, दया और करुणा का पावन उनके उपदेश निवृत्ति मय भी थे और प्रवृत्तिमय भी। स्रोत मानव मन में प्रवाहित करने का प्रयत्न किया है । उनकी शिक्षाएं न एकान्त आध्यात्मिक थीं और न महावीर केवल हमारे हैं यह कहकर कोई महावीर को एकान्त भौतिक । वे पारलौकिक होकर भी ऐहिक थीं। नहीं समझ सकता । सूरज और चांद के विशाल प्रकाश उनमें आग्रह का मोह नहीं था। यह प्राग्रह का मोह ही को सीमा में प्राबद्ध मानने का आग्रह करने वाला न मनुष्य को सांप्रदायिक मूढ़ बनाता है । वे संप्रदाय के सूरज को समझता है और न चांद को । महावीर की मोह को एक भयंकर हलाहल मानते थे। क्योंकि महत्ता को समझने के लिए हमें अपने हृदय को असंकीर्ण, सांप्रदायिकता के किले में कैद होने से मनुष्य विश्व में उदार और महान बनाना होगा। विस्तृत सत्य के कणों को एकत्रित कर उनका यथार्थ महावीर का जीवन, संघर्ष का ज्वलंत उदाहरण उपयोग नहीं कर सकता और न कभी व्यापक सत्य के है। पर यह संघर्ष किसी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र दर्शन ही कर सकता है । जगत कल्याण के लिये सांप्रके साथ नहीं अपितु अपनी ही बुराइयों के साथ था । दायिक बुद्धि कितनी भयंकर है इसकी चर्चाएं उनकी समववे पहले अपनी ही बुराइयों पर विजय प्राप्त कर जिन सररण सभा में खूब रहती थीं। अथवा जिनेन्द्र कहलाये और फिर मानव मन की शुद्धि भगवान महावीर ने ब्रह्म भेष पर कभी जोर नही के प्रयत्न में लगे । कोई भी आदमी उनके लिए बुरा न दिया वे तो प्रात्मा की अभ्यंतर शुद्धि को महत्त्व देते थे। । था केवल बुराइयां बुरी थी। एक स्थान पर उन्होने कहा है :महावीर के मानस में विश्व कल्याण की प्रेरणा थी और इसी प्रेरणा ने उन्हें तीर्थंकर बनाया । उनका न बि मुडि एण समणो, न ओंकारेण बंमणो । सर्वोदय तीर्थ प्राज भी उतना ही ग्राह्य, ताजा और न मुणी रण वासेरण, कुस चीरेण न तावसो।। प्राण प्रद है जितना उनके समय में था। उनके तीर्थ में अर्थात्-मूड मुडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता में संकीर्णता थी और न मानवकृत सीमाएं। जीवन की और न 'ओं' के उच्चारण मात्र से ब्रह्मण होता है। जिस धारा को वे मानव के लिए प्रवाहित करना चाहते थे बनवास करने मात्र से कोई मुनि नहीं होतावही वस्तुतः सनातन सत्य है । महावीर परिस्थितियों के और न बल्कल-चीर धारण करने से कोई तापस दास नहीं थे । विपत्तियों की चट्टानों के बीच रहकर हो जाता हैउन्होंने प्रात्मा के चैतन्य स्वरूप का अनुभव किया था । कठिनाइयों और यातनाओं के विष को घोलकर मानो गो वालो भंडवालो वा जहा तद्दब्बरिणस्सरो । वे इस तरह पी गये थे कि उनका उन पर कुछ भी असर एवं अरिणस्सरो तं पि सामण्णस्य भविस्ससि ।। नहीं होता था। यही कारण है कि जगत की कोई भी जैसे ग्वाल गायों को चराने पर भी उनका मालिक प्रतिकूल स्थिति उन्हें क्षुब्ध नहीं कर सकी । जीवन की नहीं हो सकता और न भंडारी धन की संभाल करने से सुविधाएं उन्हें ग्राह्य नहीं थीं। स्वर्ग उनके पैरों में धन का मालिक वैसे ही केवल वेष की रक्षा करने मात्र में लोटता था, पर उस ओर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं से कोई साधुत्व का अधिकारी नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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