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जरा जरत्याः स्मरणीयमी श्वरं-स्वयं वरी भूत मनश्वरश्रियः । निरामयं वीत भयं भवच्छिदं नमामि वीरं नृ सुरा सुरैः स्तुतं ॥१॥
(चन्द्र प्रभ चरित-महाकवि वीर नन्दी) जरा रूपी वृद्धा स्त्री के द्वारा जो सदा स्मरण करने योग्य है अर्थात जिनको जरा कभी प्राप्त नहीं होती, जो अनंत शक्तिमान हैं, जिनको शाश्वत लक्ष्मी ने स्वयं संवरण किया है, जो रोग रहित, भय रहित, भव बन्धन के विनाशक अतएव जो मनुष्य, सुर और असुरों के द्वारा स्तुत हैं ऐसे महावीर को मैं प्रणाम करता हूं।
भूयाद गाधः स विवोध वाधि-वीरस्य रत्नत्रय लब्धयेवः । स्फुरत् पयो बुबुद विन्दु मुद्रा-मिदं यदन्त स्त्रिजगत्तनोति ।।१।। ।
(धर्म शर्माभ्युदय-महाकवि हरिचन्द्र) महावीर का वह अगाध ज्ञान समुद्र तुम्हारे लिए रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, एवं सम्यक चारित्र-की प्राप्ति का कारण हो जिसज्ञानरूपी समुद्र में यह तीनों लोक एक जल के बुदबुदे के समान मालूम होते हैं।
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