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भगवान् महावीर का स्तवन
की महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुति गोचरत्वम् । निनीषवः स्मो वयं मद्यवीरं विशीर्ण दोषाशय पाश बन्धम् ॥१॥
याथात्म्य मुल्लंध्य गुणोदयाख्या लोके स्तुति भूरि गुणो दस्ते । अणिष्ठ मध्यंश भशक्नुवन्तो वक्तुं जिनत्वां किमिव स्तु यामः ॥ २ ॥
तथापि वैयात्यमुपेत्य भक्त्या स्तोतास्मि ते शक्त्यनु रूप वाक्यः । इष्टे प्रमेयेऽपि यथा स्वशक्ति किन्नोत्सहन्ते पुरुषाः क्रियाभिः ||३||
त्वं शुद्धिशक्त्यो रुद्यस्य काष्ठां तुलाव्यतीतां जिन शाति रूपाम् ।
पिथ ब्रह्म पथस्य नेता महानितीयत् प्रतिवक्त मीशाः || ४ || कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा स्तोतुः प्रवक्तुर्वचना नयो वा । त्वच्छास नैकाधिपतित्व लक्ष्मी- प्रभुत्वशक्ते रपवाद हेतुः ||५||
( युक्त्यनुशासन-प्राचार्य समन्तभद्र )
जगत में अपनी महान कीर्ति से चारों ओर जिनका आदर बढ़ रहा है ऐसे कर्म (विकार) विजेता भगवान वर्द्धमान महावीर को श्राज हम अपनी स्तुति का विषय बना रहे हैं अर्थात् स्तवन कर रहे हैं । ॥१॥ गुणों को अधिक बढ़ाकर कहना हो जगत में स्तुति कहलाती है । किन्तु गुरणों के समुद्र स्वरूप आपके गुणों के छोटे से छोटे अंश को भी कहने में असमर्थ हम प्रापका कैसे स्तवन करें ? ||२|| तो भी धृष्टता से शक्ति के अनुसार वाक्य बोलकर मैं यथाशक्ति आपका स्तवन करूंगा। क्या अपनी योग्यता के अनुसार अपने इष्ट विषय में लोग उत्साह नहीं करते ? || ३ || हे जिन ! शुद्धि और शक्ति के उदय की उपमा हीन शान्ति स्वरूप दशा को तुम प्राप्त हो । तुम ही ब्रह्मपथ मुक्ति के मार्ग के नेता हो । ( आपके अपार गुणों का हम वर्णन नहीं कर सकते ) । हम तो प्रापको केवल एक शब्द में यही कह सकते हैं कि आप महान हैं ||४||
यह कलिकाल है । श्रोता का प्राशय कलुषित है और वक्ता तत्त्व प्रतिपादन में नय दृष्टि का प्रयोग नहीं करता । यही तीनों तुम्हारे शासन की एकाधिपतित्व रूप प्रभुत्व शक्ति के अपवाद के कारण हैं || ५ ||
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