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________________ १२६ कर्म बंधते रहते हैं । यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक ग्रात्मा की मुक्ति नहीं होती जैसे अग्नि में बीज जल जाने पर बीज वृक्ष की परम्परा समाप्त हो जाती है वैसे ही राग पादि विकृत भावों के नष्ट हो जाने पर कर्मों की परम्परा मागे नहीं चलती। कर्म अनादि होने पर भी शान्त है। यह व्याति नहीं है कि जो अनादि हो उसे मनन्त भी होना चाहिए नहीं तो बीज और वृक्ष की परम्परा कभी समाप्त नहीं होगी । अनुसार कर्म है | जगत में अनेक प्रकार की विषमताएं हैं। आर्थिक और सामाजिक विषमताओं के प्रतिरिक्त जो प्राकृतिक विषमताएं हैं उनका कारण मनुष्य कृत नहीं हो सकता । जब सब में एक सा म्रात्मा है तब मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट और वृक्ष लताओं आदि के विभिन्न शरीरों और उनके सुख दुःख धादि का कारण क्या है ? कारण के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता । जो कोई इन विषमताओंों का कारण है वही कर्म हैंकर्म सिद्धान्त यही कहता है जैनों के कर्मवाद में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है, उसका अस्तित्व ही नहीं है । उसे जगत की विषमताओं का कारण मानना एक तर्क हीन कल्पना है । उसका अस्तित्व स्वीकार करने वाले दानिक भी कमों को सत्ता अवश्य स्वीकार करते हैं। ईश्वर जगत के प्राणियों को उनके कर्मों के अनुसार फल देता है! उनकी इस कल्पना में कर्मों की प्रधानता स्पष्टरूप से स्वीकृत है। 'सब को जीवन की सुविधाएं समान रूप से प्राप्त हों मीर सामाजिक दृष्टि से कोई ऊंच-नीच नहीं माना जाए' मानव मात्र में यह व्यवस्था प्रचलित हो जाने पर भी मनुष्य की व्यक्तिगत विषमता कभी कम न होगी । यह कभी सम्भव नहीं है कि मनुष्य एक से बुद्धिमान हों, एक सा उनका शरीर हो, उनके शारीरिक अवयवों और सामर्थ्य में कोई भेद नहीं कोई स्त्री कोई पुरुष और किसी का नपुंसक होना दुनियां के किसी क्षेत्र में बन्द नहीं होगा। इन प्राकृतिक विषमताओं को न कोई शासन बदल सकता है और न कोई समाज । यह सब विविधताएं तो साम्यवाद की चरम सीमा पर पहुंचे हुए देशों में भी बनी रहेंगी। इन सब विषमताओं का कारण प्रत्येक आत्मा के साथ रहने वाला कोई विजातीय पदार्थ है और वह पदार्थ कर्म है । , कर्म आत्मा के साथ कब से है और कैसे उत्पन्न होते हैं ? कर्म और मात्मा का सम्बन्ध अनादि है। जब से आत्मा है, तब से ही उसके साथ कर्म लगे हुए हैं । प्रत्येक समय पुराने कर्म म्रपना फल देकर प्रात्मा से अलग होते रहते हैं और मात्मा के राग पादि भावों के द्वारा नये Jain Education International । यह पहले कहा है कि प्रतिक्षण आत्मा में नये-नये कर्म प्राते रहते हैं। कर्मबद्ध श्रात्मा अपने मन, वचन, और काय की क्रिया से ज्ञाता वरणादि पाठ कर्मरूप और प्रौदारिकादि ४ शरीर रूप होकर योग्य पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करता रहता है । श्रात्मा में कषाय हो तो यह पुद्गल स्कन्ध कर्मवद्ध मात्मा के चिपट जाते हैं — ठहरे रहते हैं । कषाय (राग द्व ेष) की तीव्रता और मन्दता के अनुसार श्रात्मा के साथ ठहरने की कालमर्यादा कर्मों का स्थिति बन्ध कहलाता है। कपाय के अनुसार ही वे फल देते हैं यही अनुभवबन्ध या अनुभाग बन्ध कहलाता है । योग कर्मों को लाते हैं, आत्मा के साथ उनका सम्बन्ध जोड़ते हैं । कर्मों में नाना स्वभावों को पैदा करना भी योग का ही काम है । कर्मस्कन्धों में जो परमाणुओं की संख्या होती परमाणुत्रों की संख्या होती है, उसका कम ज्यादा होना भी योग हेतुक है। भोग का सूर्य आत्मा के प्रदेशों का चंचल होना है। भोग से होने वाली ये दोनों क्रियाएं क्रमशः प्रकृतिबन्ध और प्रदेश बन्ध कहलाती हैं । कर्म के भेद और उनके कारण 1 कर्मों के मुख्य ग्राठ भेद हैं । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र, और अन्तराय । जो कर्म ज्ञान को प्रगट न होने दे वह ज्ञानावरणीय, जो इन्द्रियों को पदार्थों से प्रभावान्वित नहीं होने दे वह दर्शनावरणीय जो सुख दुःख का कारण उपस्थित करे अथवा जिससे सुख दुःख हो यह वेदनीय, जो प्रारमरमण न होने दे वह मोहनीय, जो म्रात्मा को मनुष्य, तियंच, देव और नारक के शरीर में रोके वह आयु, जो शरीर की नाना अवस्थाओं आदि का कारण हो वह नाम, जिससे ऊंच नीच कहलावे वह गोत्र, मौर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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