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जो प्रात्मा की शक्ति आदि के प्रकट होने में विघ्न डाले वह अन्तराय कर्म है ।
जाता है तब यही कर्म कहलाने लगता है । यह सामर्थ्य दूर होते ही यही पुद्गल दूसरी पर्याय धारण कर लेता है । कर्म आत्मा से अलग कैसे होते हैं।
संसारी जीव के कौन-कौन से कार्य किस किस कर्म के प्रसव के कारण है यह जैन शास्त्रों में विस्तार के साथ बतलाया गया है। उदाहरणार्थ - ज्ञान के प्रकाश में बाधा देना, ज्ञान के साधनों को छिन्न-भिन्न करना, प्रशस्त ज्ञान में दूषण लगाना, आवश्यक होने पर भी अपने ज्ञान को प्रगट न करना और दूसरों के ज्ञान को प्रकट न होने देना यादि अनेकों कार्य ज्ञानावरणीय कर्म के प्रास्रव के कारणों को भी जानना चाहिए। जो कर्मास्रव से बचना चाहे वह उन कार्यों से विरक्त रहे जो किसी भी कर्म के प्रास्रव के कारण हैं । तत्वार्थ सूत्र के अध्याय में प्रसव के कारणों का जो विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है वह हृदयंगम करने योग्य है।
कर्म आत्मा के गुण नहीं हैं
कुछ दार्शनिक कर्मों को आत्मा का गुण मानते हैं पर जैन मान्यता इसे स्वीकार नहीं करती। अगर पुण्य पाप रूप कर्म आत्मा के गुण हों तो वे कभी उसके बन्धन के कारण नहीं हो सकते। यदि आत्मा का गुण स्वयं ही उसे बांधने लगे तो कभी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती । बन्धन मूल वस्तु से भिन्न होता है, बन्धन का विजातीय होना जरूरी है । यदि कर्मों को ग्रात्मा का गुण माना जाय तो कर्म नाश होने पर प्रात्मा का नाश भी प्रवश्यंभावी है, क्योंकि गुण पोर गुणी सर्वया भिन्न भिन्न नहीं होते । बन्धन यात्मा की स्वतन्त्रता का अपहरण करता है; किन्तु अपना हो गुण अपनी ही स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं कर सकता । पुण्य और पाप नामक कर्मों को यदि आत्मा का गुण मान लिया जाय तो इनके कारण ग्रात्मा पराधीन नहीं होगा; और यह तर्क एवं प्रतीति सिद्ध है कि ये दोनों ग्रात्मा को परतन्त्र बनाये रखते हैं। इसलिए ये ग्रात्मा के कुरण नहीं किन्तु एक भिन्न द्रव्य हैं । ये भिन्न द्रव्य पुद्गल हैं यह रूप, रस, गंध और स्वर्ण वाला होता एवं जड़ है। जब राग द्वेषादिक विकृतियों के द्वारा आत्मा के ज्ञानादि गुणों को घात का सामर्थ्य जड़ पुद्गल में उत्पन्न हो
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आत्मा और कर्मों का संयोग सम्बन्ध है इसे ही जैन परिभाषा में एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध कहते हैं। संयोग तो अस्थायी होता है । आत्मा के साथ कर्म संयोग भी अस्थायी है अतः इसका विघटन अवश्यं भावी है। खान से निकले हुए स्वर्णपापा में स्वर्ण के अतिरिक्त विजातीय वस्तु भी है । वह ही उसकी अशुद्धता का कारण है। जब तक वह अशुद्धता दूर नहीं होती उसे सुवर्णत्व प्राप्त नहीं होता । जितने ग्रंशों में वह विजातीय संयोग रहता है उतने ग्रंशों में सोना शुद्ध रहता है। यही हाल बात्मा का है। कर्मों की अशुद्धता को दूर करने के लिए म्रात्मा को बलवान प्रयत्न करने पड़ते हैं । इन्हीं प्रयत्नों का नाम तप है । तप का प्रारम्भ भीतर से होता है । बाह्य तपों को जैन शास्त्रों में कोई महत्व नहीं दिया गया है । अभ्यन्तर तप की वृद्धि के लिए जो बाह्य तप अनिवार्य हैं वे स्वतः ही हो जाते हैं। तपों का जो ग्रन्तिम भेद ध्यान है वही कर्मनाश का कारण है। श्रुतज्ञान की निश्चल पर्यायें हो ध्यान हैं। यह ध्यान उन्हीं को प्राप्त होता है। जिनका ग्रात्मोपयोग शुद्ध है। शुद्धोपयोग ही मुक्ति का साक्षात् कारण अथवा मुक्ति का स्वरूप है आत्मा की पुण्य और पाप रूप प्रवृत्तियां उसे संसार की ओर खींचती हैं । जब इन प्रवृत्तियों से वह उदासीन हो जाता है तब नये कर्मों का आना रुक जाता है । इसे ही जैन शास्त्रों की परिभाषा में 'संवर' कहा गया है। संवर हो जाने पर जो पूर्व संचित कर्म हैं वे अपना रस देकर ग्रात्मा से अलग हो जाते हैं । और नये कर्म प्राते नहीं । तब ग्रात्मा की मुक्ति हो जाती है । एक बार कर्मबन्धन से आत्मा अलग होकर फिर कभी कमों से संक्त नहीं होता। मुक्ति का प्रारम्भ है, पर अन्त नहीं वह अनन्त । | मुक्ति ही ग्रात्मा का परम पुरुषार्थ है । इसकी प्राप्ति अभेद रत्नत्रय से होती है। जैन शास्त्रों में फर्मों के नाश होने का अर्थ है आत्मा से उनका सदा के लिए अलग हो जाना। यह तर्क सिद्ध है कि किसी पदाथ
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