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________________ मानता तब मुक्ति को कैसे स्वीकार कर सकता है ? वह जैन धर्म का कर्मवाद तो स्वर्ग का अस्तित्त्व भी स्वीकार नहीं करता इसलिए संसार अवस्था में सदा ही प्रात्मा कर्माधीन बना भट्ट से भी वह एक कदम आगे है । पर इस सम्बन्ध में रहता है अतः प्रात्मा को समझने के लिए कर्म को जैनदर्शन का कहना है कि प्रात्मा अपने कर्म बन्धन काट समझना भी बहत जरूरी है। कर्म को समझने के लिए कर सिद्ध हो सकता है। जो यह बन्धन नहीं काट सकता मा को की जान बाई वह संसारी ही बना रहता है। प्रात्मा का संसारी और सिद्धान्त है। जो वाद कर्मों की उत्पत्ति, स्थिति और मुक्त होना दोनों ही तर्क सिद्ध हैं। जैन दर्शन में कुछ साल twari नामानित ऐसे जीव अवश्य माने गये हैं जो कभी सिद्ध नहीं होंगे। हर विवेचन करता है वह कर्मवाद है। जैन शास्त्रों में ऐसे जीवों को प्रभव्य कहते हैं। उन जीवों की अपेक्षा कर्मवाद का बड़ा गहन विवेचन है। कर्मों के सर्वा गीण ग्रात्मा के सिद्धत्व विशेषण का मेल नहीं बैठता। किन्तु विवेचन से जैन शास्त्रों का एक बहत बड़ा भाग सम्बन्धित यह भी याद रखना चाहिए कि जीवों में सिद्ध बनने की __ है। कर्म स्कन्ध परमाणु समूह होने पर हमें दीखता शक्ति अथवा योग्यता तो है ही। नहीं। प्रात्मा का नौवां विशेषण है 'स्वभाव से ऊर्ध्व प्रात्मा, परलोक, मुक्ति आदि अन्य दार्शनिक तत्त्वों गमन' । यह विशेष मांडलिक ग्रन्थकार को लक्ष्य करके की तरह वह भी अत्यन्त परोक्ष है। उसकी कोई भी कहा गया है। इसका अर्थ है प्रात्मा का वास्तविक विशेषता इन्दियगोचर नहीं है । कर्मोका अस्तित्व स्वभाव ऊर्ध्वगमन है। इस स्वभाव के विपरीत यदि प्रधानतया प्राप्त प्रणीत पागम के द्वारा ही प्रतिपादित उसका गमन होता है तो इसका कारण कर्म है। कर्म किया जाता है (जैसे आत्मा आदि पदार्थों का अस्तित्त्व उसे जिधर ले जाता है उधर ही वह चला जाता है। सिद्ध करने के लिए प्रागम के अतिरिक्त अनुमान का भी जब वह सर्वथा कर्म रहित हो जाता है तब तो अपने सहारा लिया जाता है वैसे ही कर्मों की सिद्धि में वास्तविक भाव के कारण ऊपर ही जाता है और अनुमान का प्राश्रयः भी लिया गया है। लोक के अग्रभाग में जाकर ठहर जाता है। उसके प्रागे इस कर्मवाद को समझने के लिए सचमच तीक्षण धर्मास्तिकाय नहीं होने के कारण वह नहीं जा सकता। बद्धि और अध्यवसाय की जरूरत है। जैन ग्रन्थकारों इस सम्बन्ध में माडलिक का यह कहना है कि जीव ने इसे समझाने के लिए स्थान-स्थान पर गणित का सतत गतिशील है, वह कहीं भी नहीं ठहरता चलता ही उपयोग किया है। प्रवक्ष्य उपयोग किया है । अवश्य ही यह गणित लौकिक गणित रहता है। जैन दर्शन उसकी इस बात को स्वीकार नहीं से बहुत भिन्न है। जहां लौकिक गणित की समाप्ति करता । वह उसे ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला मानकर भी उसे होती है वहां इस अलौकिक गणित का प्रारम्भ होता है। वहीं तक गमन करने वाला मानता है जहां तक धर्म द्रव्य कर्मों का ऐसा सर्वागीण वर्णन शायद ही संसार के है, यह द्रव्यगति का माध्यम है, ठीक-ऐसे ही जैसे प्रकाश किसी वाङ् मय में मिले ! जैन शास्त्रों को ठीक समझने की गति का माध्यम ईथर और शब्द की गति का माध्यम के लिए कर्मवाद को समझना अनिवार्य है ! वायु है ! जहां गति का माध्यम खतम हो जाता है वहीं कर्मो के अस्तित्व में तर्क जीव की गति रुक जाती है ! इस प्रकार जीव उर्ध्वगामी कम होकर भी निरन्तर उर्ध्वगामी नहीं है, यह जैन दर्शन संसार का प्रत्येक प्राणी परतन्त्र है ! यह पौद्गलिक की मान्यता है । प्रात्मा के इन नौ विशेषणों से यह (भौतिक) शरीर ही उसकी परतन्त्रता का द्योतक है। अच्छी तरह जाना जा सकता है कि जैन दर्शन कहीं भी। बहुत से प्रभाव और अभियोगों का वह प्रतिक्षण शिकार प्राग्रहवादी नहीं है उसके विचार सभी दार्शनिकों के । बना रहता है। वह अपने आपको सदा पराधीन अनुभव साय समन्वयात्मक हैं। करता है। इस पराधीनता का कारण जैन शास्त्रों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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