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________________ समस्त साधकों की अपेक्षा विलक्षण रहा है। अहिंसा और भी अधिक कषाय, वैर-विरोध और हिंसा एवं मादि धर्मों का निरूपण करने से पहले उन्होंने अपने प्रतिहिंसा को बढ़ाने वाला होता है । जीवन में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित किया। अहिंसा की २. अप्पाणं जइत्ता सुहमेंहए । जितनी सूक्ष्म व्याख्या महावीर ने की वैसी ही अहिंसा की अपनी प्रात्मा को सांसारिक भोगों से हटाकर राजस उत्कृष्ट साधना भी । इसलिए उनका जीवन भी दूसरा और तामसिक दुर्गुणों पर विजय प्राप्त कर, सात्विकता के लिये प्रकाश-स्तम्भ स्वरूप है । इससे दूसरों को सहज प्राप्त करने पर ही सुखी बन सकते हैं। ही सत्प्रेरणा मिलती है । कथनी और करनी की एकता ३. सव्वं अप्पे जिएं जियं । से वाणी में जो ताकत पैदा होती है केवल जोशीले केवल एक प्रात्मा को जीत लेने पर ही यानी कषायों मौर चटपटे शब्दों से कभी भी नहीं। समभाव की पर विजय प्राप्त कर लेने से ही सब कुछ जीत लिया साधना महावीर के जीवन का मूल मंत्र था। अनुकूल जाता है। इसके बाद कुछ भी जीतना शेष नहीं और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में उन्होंने समभाव रहता है। रखा । गरीब और अमीर छोटे एवं बड़े ऊंच तथा नीच ४. अप्पा मित्तममितं च, टुप्पटिठ्य सुपट्ठियो। सभी उनकी दृष्टि में समान थे। इसी तरह मारणन्तिक कष्ट देने वाले और सदा सेवा में रहने वाले परम प्रशंसक अपने पापको दुःख मय स्थान में पहुंचाने वाला भक्त पर भी वे समान भाव रखते थे। राग-द्वेष पर । नाना अथवा सुख मय स्थान में पहुंचाने वाला यह स्वयं विजय प्राप्त करने के कारण ही वे "जिन' कहलाये।। कहलाये। प्रात्मा ही है, यह प्रात्मा ही स्वयं का शत्रु है और मित्र भी है । सन्मार्ग-गामी हो तो मित्र है और उन्मार्ग सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष या पाप से वे निवृत्त हो गये। तभी मा हार उन्हें वस्तु तत्व का वास्तविक रूप पूर्ण रूप से ज्ञात ना गामा हो तो शत्रु है। इसीलिये उन्हें 'सर्वज्ञ' और 'केवली' कहते हैं । ऐसे . ५. अप्पाकत्ता विकत्ताय, दुहारण य सुहाण य । महान साधक एवं सिद्ध व्यक्ति की वाणी में न परस्पर यह प्रात्मा ही अपने लिये स्वयं सुख का और दुःख विरोध हो सकता है, न छलना प्रौर संशय ही । १२॥ का कर्ता है। कर्मो का बांधने वाला यही है और कर्मो वर्षों की कठोर साधना के बाद प्राणी मात्र का जो को काटने वाला भी यही है । कल्याण मार्ग उन्होंने प्रवर्तित किया वह चिरकाल तक ६. अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा में नन्दणं वर्ण संख्य जीवों के उद्धार का कारण हुआ और होता सन्मार्ग में प्रवृत्ति करने की दशा में यह प्रात्मा रहेगा । सुप्त मानव-चेतन को और भ्रांति बुद्धि मानव स्वयं खुद के लिये काम दुग्धाधेनु यानी इच्छा पूर्ति करने को उन्होंने जागृत किया तथा तथ्यों के प्रकाश द्वारा करने वाली गाय के समान है। नैतिक और आध्यात्मिक अज्ञानान्धकार को नष्ट कर दिया। यहां उनकी उस मार्ग पर चलने की दशा में यह प्रात्मा स्वयं नंदनवन के शक्ति संदेश-मयी और परम कल्याणमयी वाणी में से समान है। पवित्र और सेवा मय कार्य करने से यह थोडीसी सुक्तियों को उद्धृत किया जा रहा है जिनके प्रात्मा स्वयं मनोवंछित फल देने वाला हो जाता है, द्वारा व्यक्ति और समष्टि सभी को समान रूप से शांति स्वर्ग और मोक्ष के सुखों को प्राप्त कराने वाला स्वयं मिल सकती है और दीर्घकालीन दुःख की परंपरा नष्ट यही है। हो सकती है। ७. अप्पा नई वेयरणी, अप्पा में कूड सामली। १. अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेरण बज्झनों। यह प्रात्मा ही स्वयं-खुद के लिये अनीति पूर्ण अपनी प्रात्मा में स्थित कषाय विकार, वासना से मार्ग पर चलने से कार्यों में फंसे रहने की दशा में कुट ही यद्ध करो. बाह्मयुद्ध में क्या रखा है ? बाह्य युद्ध तो शाल्मली वृक्ष के समान है। उन्मार्ग-गामी होने की दशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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