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________________ भगवान महावीर की मंगलमय वाणी • अगरचन्द नाहटा जैन धर्म के प्रवर्तक एवं प्रचारक तीर्थंकर महापुरुषों बढ़ाता पा रहा है यदि वह साधना के द्वारा प्रागामी ने कई जन्मों की साधना के अनन्तर मात्म जन्मों को सीमित कर सके तो भविष्य के अनन्तकाल का साक्षात्कार करके केवल ज्ञान प्राप्त किया और जगत के दुःख तो सहज ही मिट सकता है और इतनी उपलब्धि जीवों के उद्धार के लिए कल्याण मार्ग का उपदेश कोई मामुली उपलब्धि नहीं है। निरन्तर घूमकर सर्वत्र प्रचारित किया उसे श्रवण करके महापुरुषों का प्रभाव उनकी प्राकृति से भी दूसरों लाखों व्यक्तियों ने आत्मोद्धार का मार्ग अपनाया। पर पड़ता है। साधारणतः अहिंसक व्यक्ति के निकट कुछ ने प्ररण व्रत, कुछ ने महा व्रत तथा जो व्रतों को सम्पर्क में आने वाले हिंसक जीव-जन्तु भी अपने बूरे धारण न कर सके, उन्होंने सम्यक्त्व प्राप्त करके ही स्वभाव और पारस्परिक वैर भाव को भूल जाते हैं। अपने चिरकालीन भव भ्रमण को बहुत ही सीमित कर यद्यपि महापुरुषों की वाणी को समझने की योग्यता दिया और अनेकों प्राणियों ने तो उसी भव में मोक्ष उनमें नहीं होती, पर वाणी केवल मुह से निकले हुये प्राप्त किया। ऐसी मंगलमय वाणी का जितना अधिक शब्दों को ही नहीं कहते, प्राकृति से पड़ने वाला प्रभाव प्रचार हो, उतना ही भव्य जीवों के लिए प्रशस्त और भी एक तरह से मूल बाणी है अर्थात् बिना शब्दोच्चारण उचित है। के भी अन्दर का भाव बाहर झलकता है भौर उससे इस अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से दूसरे व्यक्ति ऐसा अनुभव करते हैं कि उन्हें महा-मानव तेबीस तीर्थंकरों की वाणी तो हमें प्राप्त नहीं है पर की सौम्यमुद्रा भी एक अद्भुत संदेश दे रही है एवं केवल ज्ञान प्राप्त होने के बाद सभी एक ही भूमिका पर इससे वे परम शान्ति का अनुभव करते हैं । जैनागमों समानरूप से पहुँच जाते हैं, अतः यह माना गया है कि में यह कहा गया है कि महावीर के समवसरण में तात्विक या कल्याण-मार्ग का उपदेश सभी तीर्थंकरों नर-नारी और देव-देवी ही नहीं पर पशु-पक्षी भी पाकर का एकसा होता है, इसलिए भगवान महावीर की वाणी धर्म सन्देश ग्रहण करते थे। बहत से तिर्यच प्राणी का जो कुछ भी अंश हमें प्राप्त है उसे ही अनन्त तीर्थ- सम्यगदर्शन और कुछ एक अणुव्रत धर्म को भी ग्रहण करों का उपदेश मान सकते हैं और यह कि यदि उनके कर लेते थे। उपदेश के अनुसार साधना की जाय तो सिद्धि अवश्य महावीर के समय में भी अपने को तीर्थंकर कहने मिलेगी। यह ठीक है कि पंचम काल में भाव-विशुद्धि वाले कई धर्म प्रर्वतक थे, पर महावीर जैसी उग्र और इतनी उच्च भूमिका की नहीं होती और जो कभी-कभी उच्च साधना करने वाला उनमें से कोई न था। इसोबहुत अच्छे भाव प्राप्त होते हैं, वे भी चिरकाल टिक लिये उनकी परम्परा अधिक नहीं बढ़ पाई। मनुष्य के नहीं पाते । इसलिए इस जन्म में मोक्ष न भी हो, पर विचार, वाणी द्वारा व्यक्त होते हैं किन्तु उनका प्रभाव धर्म करणी का फल तो मिलेगा ही अर्थात् इसपे निकट साधना की गहराई पर अाधारित है। मनुष्य के व्यक्तिगत भविष्य में मोक्ष प्राप्त हो सकेगा। यह जीव जो प्रनादि भाचरण का प्रभाव भी जबरदस्त पड़ता है। महावीर काल से विषय और कषाय के सेवन से भव भ्रमण का जीवन, प्राचार और विचार दोनों दृष्टियों से अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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